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एक तरह से प्रयोजकत्व या प्रेरकत्व की ही प्रतीति करवाता है, किंतु ऐसा स्वीकार करने पर 'चैत्रस्य तण्डलं पचति' प्रभूति प्रयोगस्थल में षष्ठ्यन्त चत्र पद की सम्बन्ध अर्थ वाले पदों में भी कारक लक्षण की अतिव्याप्ति हो जाएगी, क्योंकि स्वकीय तण्डुलों को पकाने के लिए किसी अन्य को प्रदान करके चैत्रादि व्यक्ति पकाने की क्रिया में उसी प्रकार निमित्त या प्रेरक बनता है जिस प्रकार सम्प्रदान कारक में जिसे कोई वस्तु दी जाती है उसके प्रति दानक्रिया का निमित्त बन जाता है। अतः अनुमत्यादि प्रकाशनपूर्वक दानगृहीता व्यक्ति जिस प्रकार सम्प्रदान संज्ञक हुआ करता है उसी प्रकार सम्बन्धी 'चैत्र भी कारक कोटि के अंतर्गत आने लग जाएगा, इसलिए नैयायिकों का कथन है कि क्रियानिमित्तत्व को कारकत्व नहीं कहा जा सकता
तत्र क्रियानिमित्तत्वं कारकत्वमिति वैयाकरणास्तन्न ।"
अपि च, तत्र क्रियानिमित्तत्वं कारकत्वमिति न सामान्यलक्षणम् ॥
अपितु विभक्ति के अर्थ के माध्यम से क्रिया में साक्षात् अन्वित होने वाले को ही कारक कहा जाना चाहिए
विभक्त्यर्थद्वारा क्रियान्वयित्वं कारकत्वम् ।५ इस कारक लक्षण के अनुसार 'चत्रस्य तण्डुल पचति' इत्यादि उक्त दोषग्रस्त स्थल में 'चत्र' पद का पचति क्रिया के साथ साक्षात् अन्वय नहीं होने के कारण षष्ठयन्त पत्र में कारकत्व का व्यवहार नहीं होता है। इसके अनुसार धात्वर्थ के अंश में जो सुवर्थ प्रकारीभूत होता है वह कारक कहलाता है। प्रकृत में षष्ठ्यर्थ सम्बन्ध धात्वर्थ में प्रकारीभूत होकर प्रकाशित नहीं होता, अपितु नामा में ही प्रकारीभूत होता है, अतः 'सम्बन्ध' कारक की कोटि में नहीं आता। कत्ता-लक्षण
स्वतन्त्रः कर्ता।" इस पणिनीय सूत्र से विहित कर्ता की परिभाषा के सम्बन्ध में वैयाकरणों का मानना है कि प्रकृत धातु के वाच्य व्यापार का आश्रय ही कर्ता कहलाता है
___ यदा यदीयो ब्यापारो धातुनाभिधीयते तदा स कर्ता।" जबकि आचार्य श्री जयकृष्ण ने कर्ता का लक्षण न्यायमतानुसारी देते हुए कहा है कि कृ धातु से आगे यत्नार्थक तृच् प्रत्यय के विधान से 'कर्ता' शब्द की निष्पत्ति होती है जो क्रिया को जनक कृति का आश्रय होता है
क्रियानुकूलकृतिमत्त्वं कर्तृत्वं कर्तृपदस्य यत्नार्थकर्तृजन्तधातुव्युत्पन्नत्वात्।"
यद्यपि न्यायसम्मत कर्ता के लक्षण को स्वीकार करने पर 'स्थाली पचति' प्रभूति स्थलों पर स्थाली इत्यादि अचेतन पदार्थों में कर्तृत्व सिद्ध नहीं होगा, तथापि एतादृश स्थलों पर लाक्षणिक कर्तृत्व अथवा आरोपित कर्तृत्व मानने पर दोष का निराकरण हो जाता है
अतोऽन्यत्राचेतनादो कर्तृत्वं भाक्तमिति ।" कर्म-लक्षण
श्री जयकृष्ण ने कर्म कारक का लक्षण देते हुए कहा है कि परसमवेत धात्वर्य से
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