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'ओसिया' का महावीर मन्दिर और उसका वास्तुशिल्प
शशिबाला श्रीवास्तव
भारत के मरुस्थलीय अंचल में अवस्थित ओसिया ग्राम के प्राचीन मन्दिर सिकता राशि के अनन्त विस्तार में एकाकी खड़े हुए अपने अतीत की गौरव गाथा सुना रहे हैं । यह स्थल जोधपुर से पोखरण के मार्ग पर बत्तीस मील दूर स्थित है तथा सम्पूर्ण राजस्थान में " ओसवाल" वणिकों के मूल निवास के रूप में सुविदित है । जैन ग्रंथों में यह " उपकेश पट्टन" के नाम से उल्लिखित है । " ओसिया " नाम की इस नगरी के विषय में एक महत्त्वपूर्ण रोचक दन्तकथा प्रचलित है कि शत्रु द्वारा पराजित परमार नरेश उप्पल दे ने प्रतिहार नरेश के इस क्षेत्र में शरण पायी थी । अतः स्थल का नाम ओसिया (ढालान में बने किसी ओसार के कारण) पड़ा । जैन संप्रदाय में इस क्षेत्र के संदर्भ में रोचक लोकधारणा है कि परमार नरेश उप्पल दे ने यहां सच्चिय माता का मन्दिर निर्मित कराया । यही देवी सांखला परमारों की कुल देवी थी । अनेक वर्षों के उपरान्त जैन साधु हेमाचार्य के शिष्य रतन प्रभु का इस क्षेत्र में पदार्पण हुआ । उन्होंने एक चमत्कार दिखाया । कहते हैं, यहां के राजकुमार को एक सर्प ने डंस लिया । उस सर्प के विष से राजकुमार को मुक्ति दिलाने हेतु किये गये सभी प्रयास निष्फल हो गए एवं राजकुमार मृत्प्राय होने लगा तो संभावित पुत्र शोक से विह्वल नरेश ने घोषणा की कि पुत्र की जीवन रक्षा करने वाले को वे कुछ भी ( मंह मांगी वस्तु ) दे देगें । रतन प्रभु ने दरबार में उपस्थित होकर सर्प का आह्वान किया जिसने राजकुमार के अंग का विष पुनः खींच लिया और राजकुमार स्वस्थ हो गया । तब जैन सन्त रतन प्रभु ने राजा को अपनी प्रजा सहित जैन धर्म स्वीकार कर लेने के लिए कहा और उन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर लिया परन्तु इन कृत्यों से कुलदेवी सच्चिय माता रूष्ट हो गयी । वे संहार करने लगी और नाना प्रकार की विपत्तियां प्रजाजनों पर आने लगीं। ऐसी विकट स्थिति में सहासी लोगों ने मां को प्रार्थना की कि वे उन्हें विवाह आदि शुभ कार्य के पश्चात् उनको चढ़ावा चढ़ाने की आज्ञा दें यह प्रार्थना स्वीकार हो गई किन्तु चढ़ावे के बाद मंदिर में रात बिताने की मनाही हो गई । "
प्राचीन उकेश (अर्वाचीन ओसिया ) प्रतिहार एवं परमार काल से ही समृद्धिशाली नगरी थी । इसके वैभव की पुष्टि यहां के सिकता राशि में निरन्तर धूप वर्षा एवं शीत को सहते हुए खड़े छोटे-बड़े तीस देवालय हैं। पश्चिमी भारत के विभिन्न मन्दिर समूहों में यह मन्दिर समूह सर्वाधिक विस्तृत है जो अधिकांशतः प्रतिहार एवं परमार काल की कला संस्कृति के ज्वलन्त उदाहरण हैं ।
खण्ड २३, अंक १
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