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विषयता के अवच्छेदकत्व से उपलक्षित धर्म हुआ घटत्व और उस घटत्व से युक्त है घट एवं उस घट का बोधक है 'तत्' पद। बुद्धि की विषयता का अवच्छेदकत्व घटत्व का उपलक्षण ही है न कि विशेषण, क्योंकि विशेषण तो स्वयं घटत्व ही है और शाब्दबोध में घटत्व का स्वरूप से ही भान होता है।
तात्पर्य यह है कि 'तमानय' यह कहने पर इन पदों के अर्थों की उपस्थिति रूप शाब्दबोध में शक्ति का ग्रहण घटत्वादि विशेषण से उस तम् के बोध्य घटत्व के समानप्रकारकत्व द्वारा कार्यकारणभाव से (अर्थात् ज्यों ही हम तम् रूपी कारण का उच्चारण करेंगे त्योंही उस तम् का कार्य घटत्व रूप बोध हो जायेगा) बुद्धिविषत्व के रूप में उस घट का आनयन रूप अर्थ फलित हो जाएगा अर्थात् बुद्धि में विषय के रहने के कारण शक्यतावच्छेदक घटत्वादि का अनुगम हो जाता है
तमानयेत्यत्र शक्ति ग्रहपदार्थोपस्थितिशाब्दबोधानां घटत्वादिप्रकारकत्वात्तेषां समानप्रकारकत्वेनैव कार्यकारणभावाबुद्धिविषयत्वेनैव तेषामनुगमः। बुद्धि विषयत्तित्वेन शक्यतावच्छेदकानाञ्चानुगम इति विशेषः ।११
इस प्रकार वक्ता की बुद्धि की विषयता के अवच्छेदकत्व से उपलक्षित धर्म से युक्त होना अथवा अपने उच्चारण के अनुकूल बुद्धि द्वारा किसी विषय को विशिष्ट करना ही सर्वनाम पद का अर्थ है ----
वक्तृबुद्धिविषयतावच्छेदकत्वेनोपलक्षितधर्मावच्छिन्नं स्वोच्चारणानुकूलबुद्धिप्रकारविशिष्टं वा सर्वनामार्थः ।।
कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि सर्वनाम पद की कहीं प्रक्रान्त में और कहीं प्रक्रम्यमाण में शक्ति है, परन्तु यह अवधारणा अनुचित है, क्योंकि प्रक्रान्त और प्रक्रम्यमाण इन दोनों का ही अनुगमक बुद्धि की विषयता है और वह बुद्धि की विषयता ही शक्यता का अवच्छेदक होती है----
केचित्तु सर्वनामपदस्य क्वचित्प्रक्रान्ते क्वचित्प्रक्रम्यमाणे च शक्तिः ।
उभयोरनुगमकं बुद्धिविषयत्वं तदेव शक्यतावच्छेदकमित्याहुः ॥ संख्याविचार
एकत्वादि व्यवहार की हेतु संख्या है। संख्या का मूल आधार भेद और अभेद का विभाग ही है। भेदहेतु के कारण ही किसी संख्या की सत्ता का प्रश्न उठता है । यह संख्या ही उन द्रव्यों में भी भेद को जगा देती है, जो सामान्यत: भेद और अभेद से परे माने जाते हैं।
द्वित्व आदि की कल्पना का आरम्भिक और एकमात्र आधार है एकत्व कल्पना। एकत्व सिद्ध होने पर ही अन्य संख्याओं का अस्तित्व सम्भव हो सकता है
द्वित्वादियोनिरेकरवं भेदास्तत्पूर्वका यतः ।
विना तेन न संख्यानामन्यासामस्ति सम्भवः ॥१५ जिस प्रकार दिक् और गुण द्रव्य में अन्तहित रहते हैं और उसी के आवरण में प्रकट होते हैं उसी प्रकार संख्या भी सामान्यतः द्रव्य में ही अन्तर्भूत होती हैसंख्यावान्सत्वभूतोऽर्थः सर्व एवाभिधीयते ।
तुलसी प्रज्ञा
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