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जैन परम्परा में स्तूप
संभवत: स्तूप मिट्टी का बड़ा ढेर या थूहा होता था, जो किसी महापुरुष के चिता स्थान या उसके शरीर, धातु अवशेषों को लेकर बनाया जाता था । यह परंपरा वैदिक काल से ही चली आ रही थी । कालांतर में स्तूपों का सम्बन्ध बौद्ध धर्म से माना जाने लगा । विनय पिटक के अनुसार आनन्द ने बुद्ध से उनके महापरिनिर्वाण के पूर्व पूछा था कि उनकी मृत्यु के बाद उनके अवशेषों पर किस प्रकार का स्मारक बनाया जायेगा । इस पर बुद्ध ने कहा था--' जिस प्रकार चक्रवर्ती राजा के लिए चार महापंथों के मिलने से बने चौराहे पर स्तूप बनाया जाता है वैसे ही चतुष्महापंथ (चातुमहापदे) पर तथागत के लिए स्तूप बनाना चाहिए' – इससे भी स्पष्ट है कि यह प्रथा बुद्ध से पहले से ही चली आ रही थी ।
बौद्ध परम्परा के अनुसार बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् उनकी अस्थियों को आठ भागों में विभाजित करके आठ स्तूप बनवाये गये । कालांतर में सम्राट् अशोक ने इनमें से सात स्तूपों को खुदवाकर और उपलब्ध अवशेषों का बंटवारा करके उन पर बहुत से स्तूप बनवाये । अशोक को ८४ हजार स्तूप बनवाने का श्रेय दिया जाता है । बाद में बौद्ध धर्म में स्तूपों का महत्व बढ़ने लगा और यायियों तथा बौद्ध भिक्षुओं के अवशेषों पर भी बहुत बड़ी यद्यपि प्रारम्भ में स्तूप बुद्ध के परिनिर्वाण का प्रतीक था, पूजा की वस्तु बन गया । बौद्ध धर्म में मूलतः तीन प्रकार के
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[] अमरसिंह
१. शारीरिक स्तूप – ये शरीर के अंगों जैसे दांत, केश, अस्थियों आदि पर बनाये गये ।
३. उद्देशिक स्तूप
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२. पारिभोगिक स्तूप – ये उपयोग की गयी वस्तुओं जैसे भिक्षापात्र, चीवर, पादुका आदि पर बनाये गये ।
- ये बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित स्थानों तथा बौद्ध तीर्थों पर निर्मित किये गये ।
बौद्धों के समान जैन धर्म में भी स्तूपों की परम्परा मिलती है । साहित्यिक अनुशीलन से ज्ञात होता है कि जैनों के स्तूप अयोध्या, हस्तिनापुर, पाटलिपुत्र, पेशावर, तक्षशिला, पावा, कोटिकापुर और मथुरा आदि स्थलों पर विद्यमान थे । महावीर के निर्वाण के लगभग एक सौ वर्ष पश्चात् मगध नरेश नन्दिवर्धन ने अयोध्या
भगवान
खण्ड २३, अंक १
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बुद्ध के प्रमुख शिष्यों, अनुसंख्या में स्तूप बनाये गये । परन्तु बाद में वह स्वयं एक स्तूपों की परम्परा मिलती
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