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जातीयता या सामान्यता की दृष्टि से अभिन्न वस्तुओं में भेदबुद्धि की व्यावहारिक सूचना ही 'संख्या' शब्दों द्वारा मिलती है और यह समानता मूलतः एकत्व पर आधारित है। यह एकत्व ही द्रव्यत्व की पहचान का मूल हेतु है
अतो द्रव्याश्रितां संख्यामाइः संसर्गवादिनः । भेदाभेदव्यतीतेषु भेदाभेदविधायिनीम् ।। आत्मान्तराणां येनात्मा तद्रूप इव लक्ष्यते ।
अतद्र पेण संसर्गात्सा निमित्तसरूपता ॥१२॥ संख्या की अवधि एकत्व से लेकर परार्ध पर्यन्त मानी जाती है; यथा एक, दश, सौ, हजार, लाख, नियुत, कोटि, अरब, वृन्द, खर्व, निखर्व, शङ्ख, पद्म, सागर, अन्त्य, मध्य और परार्ध । ये संख्या दश गुना के वृद्धि क्रम से होती है। यही दशमलव प्रणाली की आधार शिला है----
एक दश शतञ्चैव सहस्रयतं तथा । लक्षञ्च नियुतञ्चैव कोटिरर्बु दमेव च ।। वृन्दं खर्वो निखर्वश्च शङ्खपद्मौ च सागरः ।
अन्त्यं मध्यं परार्द्धञ्च दशवृद्धया यथोत्तरम् ।।१२५ अठारह शब्दों के अन्त वाले जो संख्या शब्द हैं वे सख्या से विशिष्ट किसी द्रव्य में ही अन्वित होते हैं और केवल जो संख्या की उपस्थिति होती है वह लक्षणा द्वारा किसी द्रव्य में अन्वित होती है, परंतु उन्नीस संख्या की स्थिति विचित्र है। वह संख्या से विशिष्ट द्रव्य में भी और लक्षणा द्वारा भी इस प्रकार दोनों तरह से बोध कराती है। यहां इस संख्या के विषय में ध्यातव्य यह है कि जहां सामानाधिकरण्य से अन्वय होता है वहां वह संख्या विशिष्ट में अन्वित होती है और जहां वैयधिकरण्य से अन्वय होता है वहां वह संख्या में ही अन्वित होती है। विशति इत्यादि शब्द हमेशा एकवचनान्त ही होते हैं
तत्राष्टादसशब्दान्तसंख्याशब्दाः संख्या विशिष्टे एव शक्ता: केवलसंख्योपस्थितिः लक्षणयवेति बोध्या। ऊनविंशत्यादेस्तूभयत्रव । तत्र विशेषः यत्र सामानाधिकरण्येनान्वयस्तत्र संख्याविशिष्टे यत्र तु वैयधिक रण्येन तत्र संख्यायामेव । ऊनविंशतिब्राह्मणानामूनविंशतिरिति बोध्यम् । तत्रापि विशेषः एषां विंशत्यादिशब्दावामैकवचनान्ततव ।१३९
जहां द्वित्व, बहुत्व इत्यादि तात्पर्य के विषय बनते हैं वहां द्विवचनादि प्रयोज्य होते हैं
यत्र तु द्वित्वबहुत्वं तात्पर्यविषयं तत्र द्विवचनादिकमपि प्रयोज्यम् ।
इसी भांति एक, द्वि, त्रि, चतुर् शब्द अभिधेय पदार्थ के अनुसार तीनों लिङ्गों में प्रयुक्त होते हैं और पञ्च इत्यादि शब्द हमेशा अजहल्लिङ्ग होते हैं अर्थात् सर्वदा एक जैसे ही होते हैं____ एवमेकादिचतुरन्ता वाच्यलिङ्गतया त्रिषु वर्तन्ते पञ्चाक्ष्यस्तु सर्वदाजहल्लिङ्गाः । बण्ड २३, अंक १
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