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सन् प्रत्यय से इच्छा की स्मृति होती है । यहां विषयता संबंध है । आख्यात से लक्षणा द्वारा आश्रयत्व की स्मृति होती है और यहां आश्रयत्व संबंध है । इस प्रकार इस वाक्य से 'पाठविषय के च्छाश्रयत्वाश्रयः' ऐसा शाब्दबोध होता है । वैयाकरणों के अनुसार प्रकृत वाक्य स्थल से 'पाठविषयकेच्छानुकूल वर्त्तमानकालिकव्यापारः ' ऐसा तथा मीमांसकों के अनुसार 'पाठविषय केच्छानुकूला वर्त्तमानकालिका भावना' ऐसा शाब्दबोध होता है ।
नैयायिकों के अनुसार 'देवदशेन शास्त्रं पिपठिष्यते' इस वाक्य से 'देवदत्तवृत्तीच्छा विषय पाठजन्य फलशालिशास्त्रम् १५ ऐसा, वैयाकरणों के अनुसार 'अस्वतन्त्र - कर्तृ रूपदेवदत्ताभिन्नै ककर्तृ कशास्त्र कम कपाठविषय केच्छानुकूलवर्त्तमानकालिकव्यापार: ऐसा तथा मीमांसकों के अनुसार 'अस्वतन्त्र कर्तृ रूप देवदत्ताभिन्नै ककर्तृका शास्त्रकर्मिका पाठविषय केच्छानुकूला वर्त्तमानकालिका भावना' ऐसा शाब्दबोध होता है ।
यहां ध्यातव्य यह है कि नैयायिक, वैयाकरण और मीमांसक ये समस्त आचार्य कृदन्तों और तद्धितान्तों के स्थल में भावनाप्रकारक अथवा कर्त्तादि मुख्यविशेष्यक शाब्दबोध मानते हैं । अतः यह कहना उचित ही है कि कर्तृवाच्य के प्रयोगों में कृत् प्रत्यय की कृति ( व्यापार अथवा भावना) के आश्रय कर्त्ता में ही शक्ति होती है । फलतः 'चत्रोऽन्नस्य पक्ता' यहां षष्ठी विभक्ति का कर्म अर्थ है क्योंकि वह द्वितीया विभक्ति का प्रतिरूप है । पच् धातु से पाक की स्मृति होती है । तृच् प्रत्यय से कृति के आश्रय का बोध होता है । यहां अभेद संबंध है । अतः नयायिक इस वाक्य से 'अन्नकर्मकपाकानुकूलकृत्याश्रयाभिन्नश्चैत्रः ११६ ऐसा, वैयाकरण 'अन्नकर्म कपाकानुकूलव्यापाराश्रयाभिन्नश्चैत्र: ' ऐसा तथा मीमांसक 'अन्नकर्मिका पाकानुकूला भावनाश्रयाभिन्नश्चैत्र: ' ऐसा शाब्दबोध मानते हैं ।
भाववाच्य में विहित कृत् प्रत्यय की भाव और कर्म में शक्ति है । अतः नैयायिकों के अनुसार 'चैत्रेण पक्वमन्नम्' इस वाक्यस्थल में चैत्र पद से उत्तरवर्ती तृतीया विभक्ति से कृति की स्मृति होती है । वृत्तित्व संबंध है । पच् धातु से पाक की स्मृति होती है, जन्यत्व संबंध है । निष्ठा प्रत्यय से फलशालित्व की स्मृति होती है, अभेद संबंध है । इस प्रकार इस वाक्य से 'चैत्रवृत्तिकृतिजन्यपाकजन्यफल शाल्यभिन्नमन्नम् " ऐसा, वैयाकरणों के अनुसार 'चैत्रवृत्तिव्यापारजन्य पाकजन्य फलाभिन्नमन्नम् ' ऐसा तथा मीमांसकों के अनुसार 'चैत्रवृत्तिभावनाजन्यपाकजन्य फलाभिन्नमन्नम् ' ऐसा शाब्दबोध होता है ।
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'चैत्रेण पक्वम्' इत्यादि भाववाच्यस्थल में नैयायिकों के अनुसार 'चैत्रवृत्तिकृति - जन्यः पाकः " ऐसा, वैयाकरणों के अनुसार 'चैत्रवृत्तिव्यापारजन्यपाक : ' ऐसा तथा मीमांसकों के अनुसार 'चैत्रवृत्तिभावनाजन्यपाक : ' ऐसा शाब्दबोध होता है । भाववाच्य में घञादि कृत्प्रत्ययों का प्रयोग साघुतामात्र के लिए किया जाता है, क्योंकि भाव का अर्थ है धात्वर्थं । इसलिए घनादि प्रत्ययों के धात्वर्थरूप भावस्वरूप होने के कारण शाब्दबोध की आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि धात्वर्थ तथा प्रत्ययार्थ का अभेद रूप से संबंध है । अतः प्रयोगसाधुता के लिये ही घत्रादि प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है;
तुलसी प्रज्ञा
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