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किंतु इस पर नैयायिकों का कहना है कि तिङ् का अर्थ कर्ता मनाने पर गौरवदोष होता है, अत: आख्यात की शक्ति कृति (यत्न ) अर्थ में मानने में ही लाघव हैतच्च गौरवात्त्यज्यते । "
सारमञ्जरीकार आचार्य श्री जयकृष्ण इस प्रसङ्ग में न्यायमतानुसारी प्रतीत होते हैं । उनका कहना है कि कर्ता में विहित तिङ् प्रत्यय की शक्ति कृति में ही स्वीकार करनी चाहिए। कृति विशिष्ट कर्त्ता में शक्ति मानने से गौरवदोष होता हैकर्तृविहिताख्यातस्य कृतावेव शक्तिः कृतित्वरुप शक्यतावच्छेदकलाघवान्न कर्तरि । " 'कृति' प्रयत्न नामक एक गुण है जो कि आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहता
है—
इच्छाद्वेष प्रयत्न सुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम् ।"
कर्ता कृतिमान् कहलाता है। कृति और कृतिमान् में कृतिलघु भूत है, कृतिमान् गुरुभूत है, अत: 'चैत्रः पचति' का शाब्दबोध होगा 'पाकानुकूलकृतिमान् चैत्रः ।' इसके अतिरिक्त कृति और कर्ता में शक्यतावच्छेदक की दृष्टि से भी क्रमश: लाघवगौरव प्रतीत होता है । शब्द को शक्त कहा जाता है तथा अर्थ को शक्य कहा जाता है । शक्ति शब्द और अर्थ के परस्पर सम्बन्ध को कहा जाता है जो कि 'इदं पदमेतदर्थकं बोधकं भवतु' इस प्रकार अर्थप्रकारक पदविशेष्यक अथवा 'अस्माच्छन्दादयमर्थो बोद्धव्य:' इस प्रकार पदप्रकारक अर्थविशेष्यक ईश्वरेच्छाविशेष हुआ करती हैतेषु कर्तृविहितकर्मविहित भावविहिताख्यातेषु मध्ये कर्तृविहिताख्यातस्य कृतावेव यत्ने एव शक्ति: । एवकारेण कृतिविशिष्टे शक्तिर्व्यवच्छिद्यते । शक्तिश्चेदं पदमिमर्थं बोधयत्वित्यस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य इत्याकारी वेश्वरेच्छा । पदज्ञानान्तरं सादृशेच्छारूपशक्तिज्ञानादर्थबोधो भवति तादृशशक्तिज्ञानञ्च व्याकरणकोषादितो भवति । तथाहि 'शक्तिग्रहं व्याकरणोपमान कोषाप्तवाक्याद्व्यवहारतश्च । वाक्यशेषाद्विवृत्तेर्वदन्ति सान्नि ध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धा:' इति । तदुदाहरणानि भाषापरिच्छेदादिग्रन्थेऽनुसन्धेयम् । कृतित्वावच्छिन्ने शक्तिस्वीकारे युक्तिमाह कृतित्वरूपेति कृतित्वस्य जातिरूपतयानुगतत्वेन तस्य शक्यतावच्छेदकत्वे लाघवमतः कर्तरि कृतिमिति शाब्दिकाभिमते इत्यादिर्न शक्ति: कल्पनीयेति शेषः । "
तिङ् की शक्ति यदि कर्त्ता में मानी जायेगी तो शक्य होगा कर्त्ता अर्थात् कृतिमान् और शक्यता कृतिमान् में ही मानी जायेगी, अतः कृतिमान् में दो धर्म होंगे शक्यता और कृति । शक्यस्वरूप कृतिमान् का शक्यतावच्छेदक होगा कृतिमत्त्व (कृति), जो कि भिन्न-भिन्न कर्त्ताओं में भिन्न-भिन्न होने के कारण अनन्त कृतियां मानी जायेंगी । अतः गौरवदोष स्पष्ट है । इसके विपरीत नैयायिक मत में आख्यात की शक्ति जब कृति में ही मानी जायेगी तो शक्यावच्छेदक केवल कृतित्व होगा । कृतित्व जातिस्वरूप है जो सभी कृतियों में अनुगत रूप से रहता है । अतः जहां वैयाकरणमत में शक्यतावच्छेदक अनन्त कृतियां माननी पड़ती हैं। वहीं नैयायिक मत में शक्यतावच्छेदक के रूप में कृतित्व स्वरूप एक ही जाति को मानने में लाघव हैशक्यतावच्छेदिकायाः कृतेः यत्नरूपायाः अननुगमात्प्रतिव्यक्तिभेदेन नानात्वात् नाना
खण्ड २३, अंक १
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