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प्रतियोगित्व में की जाती है । फलतः नश् धातु का अर्थं हुआ नाश, जो कि उत्पत्तिमान का अभाव रूप है। उससे निरूपित प्रतियोगिता घट में रहती है, क्योंकि 'यस्याभाव: स प्रतियोगी' यह नियम है । प्रकृत में घटनाश हुआ घटाभाव, उसका प्रतियोगी बना घट, प्रतियोगिता रहेगी घट में, उस प्रतियोगिता का आश्रय बन जायेगा घट | अतः शाब्दबोध सुसम्पन्न हो जायेगा - नश्यतीत्यादावाख्यातार्थ कृतेरन्वयबाधादाख्यातस्य प्रतियोगित्वे लक्षणा बोध्या न तु पूर्ववदाश्रयत्वे लक्षणा । तथात्वे तु प्रतियोगिसमवायिदेशे एवं ध्वंसप्रागभावयोराश्रयत्वस्वीकाराद्घटसमवायिकपाले एवं नाशाश्रयत्वस्य सत्त्वेन घटे तद्बाधाद्धटो नश्यतीत्यादी शाब्दबोधानुपपत्तिः स्यादिति भावः । एवञ्च घटो नश्यतीत्यादी धात्वर्थनाशस्योत्पत्तिमदभावरूपतया तन्निरुपितप्रतियोगित्वं घटे वर्त्तते । तथा च नाशप्रतियोगित्वाश्रयो घट इति शाब्दबोधः ।
अतएवाख्यातस्य प्रति
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योगित्वे लक्षणास्वीकारादेव ।" कतृवाच्य प्रयोग
श्री जयकृष्ण तथा सारमञ्जरीव्याख्याकार के मतानुसार शाब्दबोध में कर्तृविहित आख्यात की शक्ति कृति में, वर्तमानत्वादि काल में तथा एकत्व इत्यादि संख्या में है । वर्त्तमानत्वादि काल का अन्वय कृति में तथा एकत्वादि संख्या का अन्वय कर्ता में होता है । इस प्रकार 'कर्त्ता में विहित तिङादि प्रत्यय कर्तृगत संख्या के समान संख्या वाले प्रयुक्त होते हैं, यह नियम भी सङ्गत हो जाता है । यद्यपि कृति भी तिङ् का अर्थ है और बर्तमानकाल भी तिङ् का अर्थ है । दोनों एक ही पद के अर्थ होने के कारण परस्पर विशेष्य विशेषण भाव के रूप में अन्वित नहीं होने चाहिये, क्योंकि यह नियम है 'एकपदोपात्तपदार्थयोर्न विशेष्यविशेषणभावेनान्वयः ' ; तथापि सार्वत्रिक न होने के कारण यह व्युत्पत्ति यहां स्वीकार्य नहीं है और न ही इस व्युत्पत्ति को स्वीकार करने में कोई प्रमाण है और न अनुभवसिद्ध है— ननु शाब्दबोधे आख्याताafai कृतिकालसंख्यानां कस्य कुत्रान्वयः इत्याकाङ्क्षायामाह यत्रेति — तत्र तेषु मध्ये इत्यर्थः । अन्वयश्चास्य प्रथमान्तपदद्वये बोध्यः । कृतावेवेत्येवकारेण क्रियाया व्यवच्छेदोऽन्यथा यदा पुरुषः पाकानुकूलयत्नशून्यः किन्तु तदधीनाग्निसंयोगादिरूपः पच्याद्यर्थो विद्यते तदा पाकक्रियाया वर्त्तमानत्वेनायं पचतीति प्रयोगापत्तिः स्यात् । कर्त्तर्येवेत्येवकारेण कृत्या दिव्यवच्छेदोऽन्यथा गुणे गुणानङ्गीकाराद्गुणस्वरूप कृतो गुणरूपसंख्याया अबाधितान्वयबोधासम्भवः स्यात् । एवञ्च कर्तृ विहितास्तिङादयः कर्तृगत संख्या समानसंख्यकवचना भवन्तीति नियमोऽपि सङ्गच्छते । नन्वाख्यातार्थकृतावाख्यातार्थवर्त्तमानत्वस्य विशेषणतयास्वये एकपदोपात्तपदार्थयोर्न विशेष्य विशेषणभावेनान्वय इति व्युत्पत्तिविरोधः स्यात् ? इत्यत आह - ऐकाश्यादि -- एकस्मात्पदादुपात्तयोर्गृ हीतयोर्ज्ञानविषयतापक्षयोः पदार्थयोरित्यर्थः । उक्तव्युत्पत्तिस्वीकारेऽऽनुभवात्मक प्रमाणमपि नास्तीत्याह- अननुभवाच्चेति । ७५
कर्मवाच्य प्रयोग
तत प्रभृति कर्मवाच्य में विहित तिङ् की शक्ति फल में है । फल धात्वर्थ का अवच्छेदक है । यथा गम् धातु का अर्थ है संयोगात्मक फलानुकूल स्पन्द रूपी व्यापार |
तुलसी प्रज्ञा
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