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करुणा, मुदिता, मैत्री, पवित्रता, समता आदि को अपने क्रोड में धारण कर लेता है । जिसमें सर्वभूतहित एवं अनन्त करुणा की धारा अहर्निश प्रवाहित होती है। ईशावास्योपनिषद् में यह स्पष्टतया विवृणित है कि वही व्यक्ति मोहरहित एवं शोकवियुक्त हो सकता है जो सर्वभूतहितरत हो, सबको अपने सदृश जानता हो :
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि जुगुप्सते । यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूदविजानतः । तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।।'
जो सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतों में भी आत्मा को ही देखता है वह इसके कारण किसी से घृणा नहीं करता है। जिस समय ज्ञानी पुरुष के लिए सब भूत आत्मा ही हो गए उस समय एकत्व देखनेवाले उस विद्वान् को क्या शोक और क्या मोह हो सकता है ? अर्थात् एकत्वदर्शी (अहिंसा व्रताराधक) शोक एवं मोह से परे हो जाता है ।
प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् में अहिंसा को आत्म-संयम का साधक कहा गया है और अहिंसा को श्रेष्ठ यज्ञकर्ता की पत्नी के रूप में स्वीकार किया गया है :
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स्मृतिदाशान्ति हिंसापत्नी संयाजाः । *
उपनिषदों में अन्यत्र अनेक स्थलों पर अहिंसा की महनीयता स्वीकृत है :
यत्तपोदानमार्जवमहिंसा - छान्दोग्योपनिषद् ३.१७.४
अहिंसा इष्टयः -- प्राणाग्निहोत्रोपनिषद्, ४
आरुणिकोपनिषद् में ब्रह्मचर्य के साथ अहिंसा की रक्षा पर विशेष बल दिया
गया है
जैन दर्शन का प्राणतत्त्व है 'अहिंसा' । भगवान महावीर की वाणी अहिंसा है, उनका उद्घोष अहिंसा है, उनका जीवन-दर्शन अहिंसा है। संसार में सभी जीव अहिंस्य हैं, अवश्य हैं । आचारांगकार ने निरुपित किया है।
ब्रह्मचर्यमहिंसा चापरिग्रहं च सत्यं च यत्नेन । हे रक्षतो हे रक्षतो हे रक्षत इति ॥ "
तुमंस नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि तुमंस नाम सच्चेव जं परितावेयध्वं ति मन्नसि तुमंसि नाम सच्चैव जं परिघेतव्वं ति तुमंस नाम सच्चेव जं उयव्वं ति मन्नसि ।
अर्थात् जिसे तू हनन करने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा रखने योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है वह तू ही है । जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है वह तू ही है । जिसे तू मारने योग्य मानता है वह तू ही है ।
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मुनि सर्वतोभाव से कर्मों को जानकर वह किसी की हिंसा नहीं करता । वह इन्द्रियों का संयम करता है, उच्छृंखल व्यवहार नहीं करता है
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तुलसी प्रज्ञा
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