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इति कम्मं परिणाय सव्वसो से ण हिंसति । संजमति णो पगब्भति'। जैन आगमों में अनेक स्थलों पर अहिंसा को सबका संरक्षक माना गया है तथा इसे सर्वभूतहितरक्षक माता कहा गया है। ___सत्य -- 'सत्य' व्रत का महत्त्व सर्वत्र स्वीकृत है। उपनिषदों में इसका महत्त्व सर्वत्र स्वीकृत है । 'सत्य' को ही भारतीयता का मूल स्वीकार किया गया है । 'सत्यमेव जयते" यह भारत का सूत्रवाक्य है। आत्म प्राप्ति के साधनों में 'सत्य' का अनेक स्थलों पर निर्देश मिलता है :...
तदभृतं सत्येन छन्नम् बृहदारण्यकोपनिषद (१.६.३) तत्सत्यं स आत्मा - छान्दोग्योपनिषद (६.८.७) श्रद्धा सत्यं ब्रह्मचर्य विधिश्च मुण्डकोपनिषद् (२.१७) सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा--मुण्डकोपनिषद् (३.१.५) सत्येनेनं तपसा योऽनुपश्पति -- श्वेताश्वरोपनिषद् (१.१५)
इसीलिए औपनिषदिक ऋषि शिक्षा का प्रारंभ सत्य से ही करता है --'सत्यं वद धर्मचर" अर्थात् सत्य बोलो, धर्माचरण करो।
उपनिषदों में सत्य का महत्त्वपूर्ण स्थान स्वीकार करते हुये यह कहा गया है कि सत्य ही धर्म है जो सत्य बोलता है वह धर्मकथन करता है ।
आगम ग्रंथों में सत्य की इसी महत्ता को अत्यन्त संरम्भ के साथ स्वीकार किया गया है । आचारांग में सत्य का महत्त्व उद्घोषित किया गया है ---
सच्चंसिधिति कुव्वह अर्थात् सत्य में धृति करो। सत्य का अनुशीलन ही परम कर्तव्य है तथा सत्यानुशीलन से व्यक्ति मृत्यु को तर जाता है :---
पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि। सच्चस्स आणाए उट्टिए से मेहावी मारं तरति ।" अर्थात् हे पुरुष तू सत्य का अनुशीलन कर । जो सत्य की शरण में रहता है वह मृत्यु को तर जाता है।
ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य का महत्त्व सार्वजनीन है । सभी सम्प्रदायों ने आत्मविद्या के साधक के लिए ब्रह्मचर्य-साधना को अनिवार्य माना है। उपनिषदों में निर्दिष्ट आत्मविद्या की प्राप्ति के साधनों में ब्रह्मचर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कहीं कहीं इसका स्वतंत्र रूप में निर्देश है तो कही तप, सत्य, श्रद्धा और अहिंसा आदि के साथ । मुण्डकोपनिषद् में तप, सत्य, श्रद्धा के साथ ब्रह्मचर्य को ब्रह्म से उत्पन्न बताया हैश्रद्धा सत्यं ब्रह्मचर्य विधिश्च ।' प्रश्नोपनिषद में पित्पलाद ऋषि भारद्वाज आदि ऋषियों को ब्रह्मचर्य की आराधना का आदेश देते हैं - तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया संवत्सरं संवत्स्यथ ।" वहीं पर ब्रह्मचर्य द्वारा आत्म साधना की पुष्टि की गई है--- ब्रह्मचर्येण ..." ।"
जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य को महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में स्वीकृत किया है तथा महाव्रतों में एक प्रमुख व्रत माना है । आचारांगकार ने ब्रह्मचर्य के महत्त्व को स्वीकार कर उसे कर्मबन्धन विच्छेद और मुक्ति के लिए अनिवार्य माना है- जे धुणाइ समुस्सयं वसित्ता बंभवेरंसि ।“ ऋषि स्पष्ट निर्देश करता है कि प्राण त्याग श्रेष्ठ है लेकिन
खंड २३, अंक १
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