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मीमांसक का मत बतलाया गया है।" वाक्य में प्रयुक्त पदों का अर्थ अभिधावृत्ति से ज्ञात हो जाता है किन्तु अन्वयांश रूप वाक्यार्थ के बोधन में अभिधा शक्ति का सामर्थ्य नहीं माना जा सकता इसलिए अन्वयांश रूप वाक्यार्थ की प्रतीति के लिए तात्पर्यवृत्ति की सत्ता स्वीकार करनी आवश्यक है। अन्वयांश रूप वाक्यार्थ पदार्थ व्यतिरिक्त है। अत: उसके बोधन में भभिधाव्यापार क्षीण शक्तिक भी माना जायेगा।
अन्वयांश बोधिका तात्पर्य वृत्ति के स्वरूप की मीमांसा प्राय: सभी ध्वनि-सिद्धांत समर्थक आचार्यों की कृतियों में उपलब्ध होती है।
तात्पर्यवत्ति के द्वितीय स्वरूप का विवेचन तात्पर्यवादी आचार्यों के ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। इन्होंने ब्यजना वृत्ति को अतिरिक्त वृत्ति के रूप में स्वीकार नहीं किया । व्यंग्यार्थ को तात्पर्यार्थ से अनतिरिक्त बताते हुए इसे तात्पर्यवृत्ति बोध्य सिद्ध करने का प्रयास किया है।
कतिपय पदवाक्यतत्ववित् लोग (कुमारिल भट्ट आदि) तात्पर्य नामक एक और भी शक्ति मान्य करते हैं जो पदों के थक्-पृथक् अर्थों के परस्पर अन्वय अथवा संबंध का बोध कराती है और जिसके द्वारा उपस्थापित अर्थ तात्पर्यार्थ कहा जाता है । यह तात्पर्यार्थ वाक्य का अर्थ हुआ करता है।"
___मीमांसा में वाक्यार्थ शैली का विवेचन विशेष रूप से किया गया है इसलिए मीमांसकों को 'वाक्यशास्त्र' कहा जाता है। मीमांसकों में भी वाक्यार्थ के विषय में कई मत पाये जाते हैं जिनमें 'अभिहितान्वयवाद' तथा 'अन्विताभिधानवाद' दो मुख्य ही हैं । प्रसिद्ध मीमांसक विद्वान् कुमारिलभट्ट तथा उनके अनुयायी पार्थसारथी मिश्र आदि 'अभिहितान्वयवाद' के समर्थक हैं इसके विपरीत प्रभाकर और उनके अनुयायी शालिकनाथ मिश्र आदि 'अन्विताभिधानवाद' के समर्थक हैं ।
अन्य आचार्यों ने तात्पर्यवृत्ति को वक्ता के विवक्षित अर्थ के बोधन तक समर्थ बताया है। जब तक वाक्य का कार्य पूर्ण नहीं होता तब तक तात्पर्यवृत्ति की भी विश्रान्ति नहीं मानी जाती है।
धनिक का मत है कि यदि प्रतिपाद्य वाक्य में क्रियाकारक एवं संसर्गाश की यथावत् पूर्ति हो जाती है तो उसे एक दृष्टि से तो पूर्ण माना जाता है किन्तु जब तक उससे अभीष्ट अर्थ की प्रतीति नहीं हो जाती उसे अपूर्ण ही माना जायेगा । अत: वाक्यार्थ मात्र क्रियाकारक रूप संसर्गात्मक रूप में सीमित नहीं माना जा सकता।
तात्पर्यवृत्ति वक्ता के अभीष्ट अर्थ की प्रतीति कराकर ही विरत मानी जाती है।
तात्पर्यवादी आचार्य अभिधा का तो विराम स्वीकार करते हैं किन्तु तात्पर्यवृत्ति का नहीं। पदार्थ प्रतीति कराकर अभिधावृत्ति विरत हो जाती है क्योंकि उसका विषय मात्र संकेतित अर्थ है किन्तु तात्पर्य वत्ति वक्त एवं श्रोत वैशिष्ट्य से तात्पर्य विषयीभूत् अर्थ की प्रतीति कराकर ही क्षीण होती है। अभिधा की भांति इसका विषय भी
तुलसी प्रज्ञा
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