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लिंग परामर्श के अभाव में साध्य विषयक अनुमिति कदापि संभव नहीं है। इसलिए लिंग परामर्श को अनुमिति के लिए मानना अनिवार्य है। ___जयन्त भट्ट ने इस प्रसंग में जो व्याख्या की है वह बड़ी विलक्षण और व्यापक है । अनुमान सूत्र की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि सूत्र में प्रयुक्त 'तत्पूर्वकम्' पद की विवेचना करना आवश्यक है । 'तत्' पद सर्वनाम है जो संदर्भानुसार प्रत्यक्ष का वाचक है । 'तत्पूर्वक अनुमानम्' पूरे पद का अर्थ यह है कि अनुमान उसे कहते हैं जिसका अस्तित्व प्रत्यक्ष के कारण है। इसीलिए इसे प्रत्यक्ष पूर्वक कहा जाता है किंतु ऐसा मानने पर इसकी उपमान, निर्णय आदि में अतिव्याप्ति होगी क्योंकि वे भी प्रत्यक्षपूर्वक होते हैं । इस दोष का निराकरण करते हुए वे कहते हैं कि अनुमान उसे कहा जाता है जिसके पूर्व में दो प्रकार के प्रत्यक्ष रहते हैं। किंतु दो प्रत्यक्ष से कोई भी दो प्रत्यक्ष गृहीत नहीं किये जा सकते क्योंकि दो विशेष प्रकार के प्रत्यक्ष ही लिये जा सकते हैं। इनमें से प्रथम हेतु और साध्य की व्याप्ति का प्रत्यक्ष है और दूसरे पक्ष में हेतु का प्रत्यक्ष है। ऐसा मानने पर उपमान, निर्णय आदि में अतिव्याप्ति नहीं होगी क्योंकि उनके पूर्व उक्त दो प्रत्यक्षों का रहना आवश्यक नहीं है। यहां पर न्याप्तिग्रहण अनुमान का साक्षात् कारण नहीं है। पक्ष में हेतु की अनिवार्य उपस्थिति (प्रत्यक्ष) ही साक्षात् कारण है।
इस पर आपत्ति उठायी जा सकती है कि इस प्रकार से दो विशेष प्रत्यक्ष मानकर अनुमान लक्षण सर्जन करना सूत्र का तोड़-मरोड़ कर कोई भी अर्थ ज्ञापित करना है । ऐसा नहीं है और समाधान देते हुए न्यायमंजरीकार कहते हैं कि हेतु ज्ञान को ही अनुमिति करण माना गया है । हेतु लक्षण स्पष्टत: अंकित करते हुए सूत्रकार आगे कहते हैं कि 'जो अपने साध्य की उदाहरण के साधर्म्य और वैधर्म्य से सिद्धि करता है उसे हेतु कहते हैं' [१।१।३४-३५] यदि हेतु का अन्वय उदाहरण के साथ साधर्म्य (समानता) तथा व्यतिरेक उदाहरण के साथ वैधर्म्य (असमानता) न हो तो वह अपने साध्य की सिद्धि नहीं कर सकता । अतः उक्त द्विविध प्रत्यक्षों के सिवा हर किसी प्रत्यक्ष को गृहीत नहीं किया जा सकता। यद्यपि 'वत्' पद से प्रत्यक्ष सामान्य का बोध होता है किंतु उसके मूल में दो विशेष प्रत्यक्ष हैं-- हेतु और साध्य की व्याप्ति का दर्शन और पक्ष में हेतु का अनिवार्य प्रत्यक्ष । इस विवेचना से अनुमान लक्षण की सव्यभिचार, विरुद्ध आदि में होने वाली अतिव्याप्ति भी निरस्त हो जाता है। क्योंकि सद् हेतु से ही अनुमिति होती है । पंचरूपों से सम्पन्न हेतु ही अपने साध्य की सिद्धि में साधक होता है, असद् हेतु नहीं । पुनः अनुमिति प्रमात्मक ज्ञान है अत: उसमें हेतु दोष हो ही नहीं सकते।
वाचस्पति मिश्र की भांति जयंत भट्ट भी 'द्वे प्रत्यक्षे' पद में प्रयुक्त प्रत्यक्ष को उपलक्षण परक मानकर इससे सभी प्रमाणों को गहित करते हैं, जैसा कि न्यायवार्तिक के प्रथम विग्रह में उल्लिखित हुआ है । अतः ऐसा मान लेने पर अनुमितिपूर्वक अथवा शब्दपूर्वक भी अनुमान हो सकता है और अव्याप्ति का वारण किया जा सकता है । कुमारिल भट्ट ने ठीक ही कहा हैखण्ड २३, अंक १
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