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'यस्य येनार्थ सम्बन्धो दूरस्थस्यापि तस्य सः' अन्य विद्वान् कुछ और आक्षेप लगाते हैं। वे कहते हैं कि यदि 'तत्' पद से प्रत्यक्ष को गृहीत किया जाये तो प्रत्यक्षपूर्वक (तत्पूर्वक) ज्ञान प्रत्यक्षात्मक ही होगा जो इन्द्रियों से उत्पन्न होता है । परन्तु यह आक्षेप न्याय संगत नहीं जान पड़ता क्योंकि 'तद्' पद से यदि इन्द्रिय प्रत्यक्ष लिया जाय तो 'त-पूर्वक' का अर्थ होगा हेतु का प्रत्यक्ष अर्थात् हेतु का अव्यवहित प्रत्यक्ष जो चक्षु इन्द्रिय से होता है। यही परोक्ष साध्य अर्थ के ज्ञान का करण भी है। इसलिए अनुमान है। यदि यह कहा जाये कि अनुमान अनुमिति ज्ञान का करण है तो 'तत्' पद का अर्थ प्रत्यक्ष ग्रहण करने पर जो ज्ञान प्रत्यक्षात्मक ज्ञान से उत्पन्न होगा वह अनुमिति का कारण कैसे हो सकता है ? किंतु यह आपत्ति उचित प्रतीत नहीं होती क्योंकि 'तत्' पद से हेतु का प्रत्यक्ष ही गृहीत होता है, ऊपर सिद्ध किया जा चुका है । 'तत्पूर्वक' पद से हेतु और साध्य की व्याप्ति को गृहीत किया गया है जो साध्य रूप परोक्ष अर्थ की साधिका है। लक्षण में 'यतः' पद जोड़कर ...-'यतः तत्पूर्वकं अनुमानम्' लक्षण करने पर भी उक्त दोष आपास्त किया जा सकता है । आशय यह कि अनुमान द्वारा उस अर्थ का बोध होता है जो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष कारणता से परे है।
अन्त में लिंग परामर्श की प्रक्रिया समझाते हुए वे लिंगपरामर्श को 'तत्' पद से गृहीत करते हुए प्रतीत होते हैं । अनुमान का क्रम इस प्रकार है-प्रथम सोपानक्रम में पक्ष में हेतु की उपस्थिति का भान (दर्शन) होता है तत्पश्चात् पाकशाला आदि में गृहीत हेतु और साध्य की व्याप्ति का स्मरण होता है। इसके अनन्तर पक्ष में व्याप्ति विशिष्ट हेतु का दर्शन होकर परोक्ष अज्ञात साध्य अर्थ की अनुमिति होती है ।
___ इस प्रकार हम देखते हैं कि न्यायमंजरीकार ने महर्षि गौतम कृत अनुमान लक्षण को वात्स्यायन, उद्योतकर एवं वाचस्पति मिश्र के मतों की तर्क सम्मत स्थापना से सूत्रकार की परिभाषा को निर्दुष्ट घोषित किया है।
- डॉ० ब्रजनारायण शर्मा दर्शन विभाग, सागर विश्वविद्यालय
सागर [म. प्र.]
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तुलसी प्रसा
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