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यदेकं प्रक्रिया भेदबहुधा प्रविभज्यते ।
तद्ध्याकरणमागम्य परं ब्रह्माधिगम्यते ॥ व्याकरण सम्प्रदाय के आचार्यगण व्याकरण शास्त्र को शब्दानुशासन नाम से भी अभिहित करते हैं
शब्दानुशासनं नाम शास्त्रमधिकृतं वेदितव्यम् । अपौरुषेय शास्त्र और शिष्टाचार परम्परा से प्राप्त स्मृतियों को प्रमाण मानकर शिष्ट महर्षियों ने शब्दानुशासन का निर्माण किया है--
तस्मादकृतकं शास्त्रं स्मृतिं च सनिबन्धनाम् ।
आश्रित्यारभ्यते शिष्ट: शब्दानामनुशासनम् ।।" शिष्टों की अनादि परम्परा से चला आ रहा आगममूलक व्याकरणशास्त्र आगम शब्दों का साधुत्व बतलाता है----
साधुत्वज्ञानविषया सैषा व्याकरणस्मृतिः ।
अविच्छेदेन शिष्टानामिदं स्मृतिनिबन्धनम् ।।१२ ___ व्याकरण वैखरी, मध्यमा और पश्यन्ती नामक तीनों वाणियों का उत्कृष्ट स्थान है
त्रय्या वाचः परं पदम् ।" आचार्य पतञ्जलि ने व्याकरण शब्द का अर्थविवेचन करते हुए कहा है कि व्याकरण शब्द का अर्थ लक्ष्य (शब्द) और लक्षण (सूत्र) दोनों हैं
लक्ष्यं लक्षणञ्चतत्समुदितं व्याकरणं भवति ।" तात्पर्य यह है कि वह शास्त्र जिस में सूत्रों अथवा अन्य नियमों के द्वारा शब्द की व्युत्पत्ति या शुद्धिविषयक अवबोध करवाया जाये वह शास्त्र व्याकरण कहलाता है । वस्तुत: 'एकः शब्दः सम्यग् ज्ञात: शास्त्रान्वितः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुग्भवति"५ इस भाष्यवचन से भी साधु शब्दों की उपादेयता समुचित रूप से प्रस्फुटित हो रही है। व्याकरणशास्त्र के भेद
व्याकरण शास्त्र के दो भेद हैं-प्रथम है शब्दसाधुत्वासाधुत्वविषयक और द्वितीय है पदपदार्थसामर्थ्यचिन्तनविषयक । शब्दसाधुत्वासाधुत्वविषयक प्रथम प्रकार के आरम्भ का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है, क्योंकि आचार्य पाणिनि से भी पूर्ववर्ती अनेक वैयाकरण हुए हैं जिनमें शिव, बृहस्पति, इन्द्र, भरद्वाज, वायु, काशकृत्स्न, वैयाघ्रपाद, व्याडि, शाकटायन इत्यादि प्रमुख हैं एवं द्वितीय जो पदपदार्थसामर्थ्य चिन्तनपरक प्रकार है उसकी भी अष्टाध्यायी में आचार्य पाणिनि ने 'अवङ् स्फोटायनस्य जैसे सूत्रों में सङ्केत देकर प्राचीनता सिद्ध कर दी है। व्याकरण-दशन
यद्यपि संस्कृत व्याकरण के लब्धप्रतिष्ठित आचार्य तो पाणिनि, कात्यायन और पतञ्जलि ये मुनित्रय ही हैं, तथापि इनमें पाणिनि और कात्यायन ने मुख्य रूप से व्याकरण के प्रक्रिया भाग पर ही अधिक जोर दिया है। अतः इन दोनों आचार्यों की
सुलसी प्रसा
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