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शब्द शक्तियां--एक संक्षिप्त विवंचन
3 सुनीता जोशी
शब्द शक्तियों के सम्बन्ध में भारतीय शब्द विचारकों की चिंतनधारा को पूर्ण प्रतिष्ठा मिली है। शब्द से अर्थ की प्रतीति सम्बन्ध मूलिका है। यह संर्वजनीन अनुभव है कि शब्द सुनते ही अर्थ विशेष का ज्ञान होता है। इस अनुभव के आधार पर ही शब्दार्थ-सम्बन्ध की सत्ता मानकर उसके उपपादन हेतु अनेक विचारधाराओं का उद्गम हुआ जो वृत्ति रूप में स्वीकार की जाती है। अभिधावृत्ति . साक्षात्संकेतित रूप मुख्यार्थ की प्रतीति कराने वाले शब्द-व्यापार को अभिधावृत्ति कहा गया है' शब्द के व्यापार के बाद जिस अर्थ की प्रतीति अव्यवहित रूप से होती है वही मुख्य अर्थ है।
आचार्य विश्वनाथ ने मम्मट के ही उक्त मत का अनुसरण करते हुए संकेतित अर्थ का बोध कराने वाली वृत्ति को अभिधा माना है। चतुर्विध संकेतित अर्थ ही वह अर्थ है जिसे शब्द का मुख्य अर्थ कहा जाता है और इस चतुर्विध संकेतित अर्थ का बोधन कराने में शब्द का जो व्यापार होता है वह 'अभिधा व्यापार' या 'अभिधा शक्ति' कहलाता है।
अप्पय दीक्षित ने शक्ति के द्वारा अर्थ प्रतिपादिका वृत्ति को अभिधा कहा है।' इनके इस लक्षण में प्रयुक्त शक्ति एवं अभिधा ये दोनों पद भिन्नार्थक हैं । शब्द में शक्ति की सत्ता सदैव रहती है किंतु जब वह उच्चरित होता है तो उसमें अर्थावबोध रूप अभिधा व्यापार माना जाता है।
पंडितराज जगन्नाथ ने अभिधा के लक्षण को परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया है । पूर्ववर्ती साहित्य शास्त्रियों का ध्यान अभिधा-लक्षण निरूपित करते समय शब्दार्थसम्बन्ध की ओर केन्द्रित नहीं हुआ था। इन्होंने अभिधा-व्यापार को शब्दार्थगत सम्बन्ध विशेष के रूप में प्रतिपादित किया । इनके अनुसार अभिधा शक्ति उस शब्द व्यापार को मानेंगे जिसमें अर्थ का शब्द में और शब्द का अर्थ में साक्षात् संबंध होता है।"
भोजराज ने भी वाक्याथं बोध में वर्ण, पद एवं वाक्य के कार्य-क्षेत्र को प्रदर्शित करके शब्दार्थ ज्ञान के लिए वृत्तियों की आवश्यकता स्वीकार की है। इनके अनुसार शब्द की तीन शक्तियां हैं जिनमें से अभिधा शक्ति प्रमुख है।
खण्ड २३, अंक १
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