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अभिधा शक्ति के भेद
अभिधा शक्ति रूढ़ि, योग एवं योगरूढ़ि भेदों तीन प्रकार की है । जब शब्द शक्ति से अखण्ड अर्थ का बोध कराता है, अवयवगत अर्थ की पृथक् रूप से प्रतीति नहीं होती तो वहां रूढ़ि अभिधा का क्षेत्र माना जाता है। "
रूढ़ि अभिधा में एक तो अवयवार्थ का भान ही नहीं होता दूसरे यदि उसका भान होता भी हो तो समुदाय शक्ति से उसका बोध हो जाने से उसकी स्वतंत्र प्रतीति नहीं होती यथा - मणिनुपूर इत्यादि । यहां शब्दार्थक मण धातु से कर्त्ता अर्थ में इन् प्रत्यय करने पर भी मणि शब्द से कर्तृरूप अर्थ की प्रतीति नहीं होती अपितु रूढ़ि - शक्ति से रत्नरूप अर्थ का ही बोध होता है !
जहां अभिधाशक्ति अवयवार्थ के बोध के साथ एकार्थ की बोधिका होती है वहां योगशक्ति का अवसर उपस्थित होता है। उदाहरणार्थ पाचकादि शब्द। यहां पच् धातु से विक्लित्यनुकूल व्यापार रूप अर्थ एवं अक् प्रत्यय से कर्तृरूप अर्थ की प्रतीति होती है। दोनों अर्थों को मिलाकर विक्लित्यनुकूलव्यापाश्रय रूप अर्थं का बोध होता है ।
अभिधा को तृतीय भेद योगरूढ़ि में अवयव एवं समुदाय दोनों शक्तियों की अर्थबोधन के लिए अपेक्षा होती है । पदार्थ की प्रतीति के लिए दोनों की उपयोगिता रहती है ।" उदाहरणार्थ- पंकजादि शब्दों में कमल अर्थ की प्रतीति कराने के लिए
अवयव एवं समुदाय दोनों अर्थ अपेक्षित होते हैं । अभिधा के उपर्युक्त तीन भेदों के अतिरिक्त एक चतुर्थ भेद मानना आवश्यक है । यथा - अश्वगन्धा शब्द अश्व सम्बन्ध के अर्थ में यौगिक है किंतु औषधि विशेष के कभी रूढ़ होता हुआ यौगिकरूढ़ का उदाहरण है ।"
लक्षणावृत्ति
अभिधा से भिन्न सभी वृत्तियों को अभिमुखवृत्ति कहा जाता है । जब वाक्य में प्रयुक्त पदार्थों का परस्पर अन्वय बाधित हो जाता है तो उपपत्ति के लिए लक्षणवृत्ति का आश्रय लिया जाता है ।
यौगिक रूढ़ भी कारण वाजिशाला अर्थ में रूढ़ होने से कभी यह यौगिक एवं
न्यायदर्शन में जब शक्यादि- समीप्यादि सम्बन्ध से अन्यार्थ की प्रतीति होती है तो वहां लक्षणा मानी जाती है। मुख्यार्थं बाध में अन्वयानुपत्ति एवं तात्पर्यानुपत्ति को हेतु माना जाता है ।" 'काव्यदर्पण' में भी यही कहा गया है ।"
साहित्यशास्त्र में अन्वयानुपपत्ति अथवा तात्पर्यानुपत्ति होने पर जहां मुख्यार्थ से सम्बन्ध किसी अन्यार्थ की प्रतीति होती है वहां लक्षणवृत्ति मानी जाती है । लक्षणा में मुख्यार्थबाध मुख्यार्थयोग तथा रूढ़ि तीन हेतु माने जाते हैं । १२
अथवा प्रयोजन
नव्य-नैयायिकों ने तात्पर्यानुपपत्ति को ही लक्षणाबीज माना है। अभिधा की भांति लक्षणावृत्ति को भी पद एवं पदार्थ का संवर्धन प्रदान किया गया है । वाक्य में शक्ति न मानने वाले मीमांसक शक्यसम्बन्ध रूपा लक्षणा नहीं स्वीकार करते। उनके अनुसार "गंभीरायां नयाघोषः" इत्यादि लक्ष्यानुसार ज्ञाप्य सम्बन्ध रूपा लक्षणा
तुलसी प्रज्ञा
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