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ही मानी जाती है। यहां गम्भीर पद की तीर में लक्षणा नहीं हो सकती । गम्भीर पद की तीर में लक्षणा मानने पर तीर का नदी के साथ अन्वयबाधित है क्योंकि तीर नदी नहीं है । नदी पद की भी तीर में लक्षणा नहीं हो सकती क्योंकि तीर के गम्भीर न होने से उसका अन्वय बाधित है । यदि दोनों पदों में लक्षणा मानी जाती है तो 'नामार्थयोरभेदान्वयः " इस नियम के अनुसार गम्भीर तीर अभिन्न नदी तीर रूप अर्थ की प्रतीति होगी जबकि गम्भीर नदी तीर में लक्षणा मानकर गम्भीर पद को मात्र तात्पर्य ग्राहक माना जाय तो यह भी विनिर्गमक के अभाव में ठीक नहीं है ।
नदी पद को द्रव्य का वाचक मानकर उसका साक्षात् सम्बन्ध होने से उसी में लक्षणा मानना ठीक नहीं है क्योंकि गंभीरपद भी गुणिवाचक होने से उसका भी साक्षात् सम्बन्ध है अतः लक्षणा समुदाय में ही मानी जायेगी । समुदाय में शक्ति न होने से शक्यसम्बन्धरूपा लक्षणा का अवसर ही नहीं रहेगा अतः ज्ञाप्यरूपा लक्षणा ही मीमांसकाभिमत है ।
अद्वैतवेदांत दर्शन के अनुसार लक्षणा वाक्य-वृत्ति मानी जाती है । " गभीरायां नद्यां घोषः" इत्यादि लक्ष्यों में लक्षणा पद मात्रवृत्ति न होकर समुदायवृत्ति ही है ।"
प्राचीन वैयाकरण शाब्दबोध में कार्य कारण भाव रूप गौरव को दृष्टि में रखते हुए लक्षणा को पृथक् वृत्ति नहीं मानते । अभिधावृत्ति को ही प्रसिद्ध एवं अप्रसिद्ध इन दो भागों में विभाजित करके अप्रसिद्ध शक्ति में ही लक्षणा को भी अन्तर्भूत मानते हैं । १५
कतिपय विद्वानों ने यह कहा है कि लक्षित अथवा प्रतिपादित होने वाला ज्ञान ही लक्षणा है । इनका मत युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि अभिधा और व्यंजना की भांति लक्षणा भी एक वृत्ति है । इसलिए वृत्ति जन्य ज्ञान को लक्षणा कहना उचित नहीं है ।" लक्ष्यार्थं एवं मुख्यार्थ दोनों को ही अभिधावृत्ति
बोध्य मान लेने पर गौण एवं मुख्य शब्दों की व्यवस्था लोक प्रसिद्धि से हो जायेगी ।" शब्द का जो अर्थ लोकप्रसिद्ध नहीं है वह उसका गौणार्थ माना जायेगा। गो शब्द का प्रसिद्ध होने से मुख्यार्थ एवं वाहीक अर्थ लोक प्रसिद्ध न जायेगा ।
सास्नादिमदर्थं लोक होने से गौणार्थं कहा
अन्वयानुपपत्ति अथवा तात्पर्यानुपपत्ति होने पर जहां मुख्यार्थ से सम्बन्ध अन्यार्थ की प्रतीति होती है वहां लक्षणावृत्ति मानी जाती है। मुख्यार्थ बाध में अन्वयानुपपत्ति एवं तात्पर्यानुपपत्ति दोनों को बीज माना गया है । कहीं-कहीं पर अन्वयानुपत्ति एवं तात्पर्यानुपपत्ति दोनों को लक्षणा का बीज माना गया है। विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि लक्षणा में मुख्य रूप से तात्पर्यानुपपत्ति ही बीज है । अन्वयानुपपत्ति को बीज मानने पर "गंगायांघोषः " इस प्रसिद्ध प्रयोग में भी आपत्ति का प्रदर्शन किया जा सकता है । तात्पर्यानुपत्ति को बीज मानने पर ही होती है ।" लक्षणा हेतुओं में मुख्यार्थ एवं लक्ष्यार्थ के मध्य
गंगा
खण्ड २३, अंक १
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पद को लक्षणा तीर में सम्बन्ध का भी विशेष
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