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मध्य-युगीन जैन योग का क्रमिक विकास
. भागचन्द्र जैन 'भास्कर'
साधारण तौर पर सर्वत्र योग को परमात्म पद से जोड़ा गया है और फिर परमात्मा की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की गई है। चार्वाक् को छोड़कर सभी भारतीय दर्शन योगवादी हैं और उनका योगवाद उनकी दार्शनिक भूमिका पर टिका हुआ है। इसलिए दार्शनिक क्षेत्र में वे जिस प्रकार परस्पर प्रभावित हैं उसी तरह यौगिक क्षेत्र में भी उन्होंने आपस में आदान-प्रदान किया है।
मध्य-युगीन जैन योग परम्परा ऐसे ही आदान-प्रदान को रेखांकित करती है। उसे समझने के लिए उसकी पूर्ववर्ती परम्परा को समझना होगा। जैन योग परम्परा की उत्पत्ति और विकास का सम्बन्ध इतिहास की दृष्टि से जैनधर्म की उत्पत्ति और विकास की सीढियों से लगा हुआ है। इसे हम स्थूल रूप से चार युगों में विभाजित कर सकते हैं--१. आगम पूर्व युग, २. आगम युग, ३. मध्य युग और ४. आधुनिक युग । मध्ययुगीन जैन योग मध्ययुगीन दर्शन और भक्ति तन्त्र का केन्द्रीय तत्त्व है। ___आगम पूर्व युगीन जैन योग परम्परा के आद्य व्याख्याकार तीर्थंकर आदिनाथ थे जिनका उल्लेख वैदिक और बौद्ध साहित्य में बड़े सम्मान के साथ हुआ है। उन्हें हिरण्यगर्भ का भी अभिधान मिला था। शुभचन्द्र ने उन्हें योगिक कल्पतरु कहकर नमस्कार किया है (१-२) । सांख्य-योग परम्परा ने भी कदाचित् उसी से अपनी योग परम्परा का प्रवर्तन किया है. हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः- सांख्य-योग दर्शन । मोहेनजुदाडो, हडप्पा और लोहानीपुर से प्राप्त कायोत्सर्गी नग्न योगी मुद्राएं उन्हीं की वीतरागी मुद्रा को संकेतित कर रही हैं । 'पूर्व' साहित्य का ज्ञानप्रवाद और आत्मप्रवाद सम्भवतः जैन योग परम्परा के आदि रूप को समाहित किए रहा होगा। दुर्भाग्य से आज वह हमारे समक्ष नहीं है।
आगम युग तीर्थंकर महावीर से शुरू होता है और लगभग पांचवी शताब्दी में आगम लिपिबद्ध हो जाते हैं और उनमें तब तक विकसित योग परम्परा भी प्रतिबिंबित हुई है । इस लम्बे पीरियड को भी हम अनेक परतों में बांट सकते हैं। सबसे पहली परत में, हम पालि-साहित्य में पाते हैं जहां निगण्ठनातपुत्त और उनके अनुयायी मुनिवर्ग की कठोर तपस्या का वर्णन हुआ है। उनमें एक प्रसंग तो यह है कि महावीर मनोदण्ड को तो मानते ही हैं पर यदि उसके साथ कायदण्ड भी हो गया हो तो वह अपेक्षाकृत अधिक गहरा हो जाता है। कर्म के आश्रव और संवर में भाव की भूमिका काय से कहीं अधिक होती है (मज्झिम निकाय, उपालिसुत्त)। अंगुत्तरनिकाय के वप्पसुत्त में चण्ड २३, अंक १
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