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रूपस्थ और रूपातीत के रूप में विभाजित कर अष्टांग योग का विवेचन किया। यहां मंत्र परम्परा को भी स्थान दिया गया है।
आचार्य हेमचन्द्र ने शुभचंद्राचार्य के चिंतन को आगे बढ़ाते हुए चित्त के चार प्रकार बताए- विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट एवं सल्लीन । यहीं आत्मा की बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा रूप अवस्थाओं का भी चित्रण किया गया है। इसी प्रसंग में पार्थिवी, वारुणी, तेजसी, वायवी और तत्त्व रूपवती [तत्त्वभू]-इन पांच धारणाओं का भी विवेचन हुआ है।
आचार्य शुभचंद्र ने अपने ज्ञानार्णव को ध्यान तंत्र' की भी संज्ञा दी है [३.२४] और ध्यान को वज्र भी कहा है [२८.५] । अन्यत्र 'वज्रपञ्जर' का उल्लेख करते हुए पृथिवी, अप, वह्नि, वायु और आकाश तत्व का वर्णन किया है [१९.१-५] । इसी सर्ग में आचार्य ने काम तत्त्व को आत्मस्वरूप माना है और कहा कि सभी शक्तियां आत्मा की है [१९.८] । आत्मा ही शिव, गरुड और काम है [१९.९]। ये संदर्भ ज्ञानार्णव पर तंत्र परम्परा के प्रभाव को व्यक्त करते हैं । अन्तर यह है कि तंत्र परम्परा की वीभत्सता यहां नहीं है बल्कि ध्यान के माध्यम से कामादिक वासनाओं को समाप्त कर आत्मा की अचिन्त्य शक्ति को उद्भासित किया है [१९.११] । इसलिए ध्यान के लक्षण में ममत्व त्याग और अन्तरंग-बाह्य परिग्रह की विरहिता आवश्यक मानी है [३.१९] बारह भावनाओं के चिंतन से योगी का मन नि:संग हो जाता है ।
योग दर्शन में चित्त की पांच वृत्तियों का उल्लेख मिलता है-क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । इन्हें हम आत्मविकास की भूमिकायें कह सकते हैं। स्थविरवादी योग साधना में इन्हीं को चार भागों में विभाजित किया गया है- स्रोतापत्ति, सकदागामी, अनागामी और अर्हत् । उत्तरकाल में महायानी योग साधना में ये ही अवस्थायें दस भागों में संयोजित की है-प्रमुदित, विमला, प्रभाकरी, अचिष्मनी, सुदुर्जया, अभिमुखी, दुरंगमा, अचला, साधुमती और धर्ममेवा। आचार्य हरिभद्र ने आगम की रत्नत्रयी साधना को आठ दृष्टियों के रूप में उल्लिखित किया है-मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कांता, प्रभा और परा [योगदृष्टि १३]। ये दृष्टियां आत्मतत्त्व को देखने के लिए क्रमिक आध्यात्मिक विकास को स्पष्ट करती हैं । हरिभद्र ने उन्हें क्रमशः तृण के अग्निकण, गोबर के अग्निकण, काठ के अग्निकण, दीपक की प्रभा, रत्न की प्रभा, तारे की प्रभा, सूर्य की प्रभा तथा चंद्र की प्रभा के समान साधक की दृष्टियां कहा हैं। ये दृष्टियां पातंजल दर्शन के अष्टांगयोग से मिलती-जुलती हैंयम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।
__शुभचंद्र ने हरिभद्र की आठ दृष्टियों को स्वीकार करने की अपेक्षा पातंजलि के अष्टांगयोग को अपनाया है और उसका विश्लेषण अपने ढंग से किया है। उन्होंने यम को महाव्रत के साथ बैठाया है इस अंतर के साथ कि यम मात्र संयम है, निषेधात्मक है जबकि महाव्रत व्यापक है, भावात्मक है। महाव्रतों की स्थिरता के लिए पांच भावना, त्रिगुप्ति और पांच समितियों का पालन करना आवश्यक माना है [१८.१-५] : नियम (शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना) के अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और
तुलसी प्रशा
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