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प्राणायाम : एक आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण
दीपिका कोठारी Dरामजी मीणा
मनुष्य का शरीर प्रकृति की महानतम अभिव्यक्ति है । इस शरीर में एक ऐसी चेतना अवस्थित है जो अपने बारे में तथा प्रकृति एवं ब्रह्माण्ड के बारे में जानना चाहती है और जब कुछ जान पाती है तो आनन्दित होती है । परन्तु इस अदभुत संयोग का आधारभूत सत्य यह है कि यहां एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सम्भव नहीं। चेतना नहीं तो शरीर नहीं । शरीर नहीं तो चेतना को भी चिह्नित करना असंभव है। इतना ही नहीं एक का मामूली सा विकार भी चेतना को प्रभावित करता है। ठीक इसके विपरीत यदि हमारी मानमिक स्थिति लगातार तनावग्रस्त है तो शारीरिक स्वास्थ्य भी बिगड़े बिना नही रह सकता ।
इसी तरह "स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा निवास करती है" के अनुसार हमारा चित्त भी स्वस्थ शरीर में ही प्रसन्न रहेगा। वास्तव में यह कहावत अपने उल्टे क्रम में भी उतनी ही सच है। तभी तो अक्सर देखने में आता है कि स्वस्थ, सकारात्मक मंगलमय चिंतन करने वाली, मस्त एवं अल्हड़ प्रकृति की आत्माओं का शरीर भी स्वस्थ होता है। सार यह है कि दोनों में परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। पूर्ण शारीरिक स्वास्थ्य एवं मानसिक प्रसन्नता की प्राप्ति का प्रयत्न कौन नहीं करता होगा, परन्तु अक्सर या तो हम गरीर से विकारग्रस्त रहते हैं या मन से तनावग्रस्त । पूरे जीवनकाल का वह हिस्सा थोड़ा सा होता है जब दोनों में समन्वय एवं संतुलन रहता है। मेडिकल साइंस ने शरीरिक रहस्यों को काफी गहराई से समझा है और उसके बल पर कई घातक व्याधियों एवं विकारों का उपचार संभव हो सका है। इसी तरह आधुनिक मनोविज्ञान ने मन का व्यवस्थित एवं व्यापक अध्ययन किया है। इससे मानसिक बीमारियों व विकृतियों का इलाज ही संभव नहीं हुआ, शरीर व मन के बीच सम्बन्धों की कई महत्वपूर्ण कड़ियों का भी पता चला है । परन्तु जहां आयुर्विज्ञान ने अपना अब तक का अधिकांश प्रयास केवल शरीर के उपचारात्मक पहलू पर ही अधिक केन्द्रित रखा है तथा स्वास्थ्य के निरोग एवं उन्नायक पहलू उपेक्षित रहे हैं, वहीं मनोविज्ञान की सीमा केवल स्थूल मन के आवेगों, संवेगों के अध्ययन से अधिक आगे नहीं बढ़ सकी
यहपि अलग ढंग से परन्तु महत्वपूर्ण कोणों से प्रचीन भारतीय ऋषि मुनियों ने भी शरीर-चेतना सम्बन्धों को बहुत गहराई से देखा और समझा था। इनमें साम्य एवं इनके
बम २३, पंक
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