Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिंतामणिः
उपदान देतुतावसुरस्तथा । Prastaarket पोढा संगतिरिष्यते ॥ २ ॥
यहां हेतुताङ्गति है, लोकवार्षिक ग्रंथका और गुरुओंके ध्यानका अध्यभिचारी कार्यकारण भाव सम्बन्ध है । इसी घातको ग्रंथकार आद्य वाक्य द्वारा प्रगट करते हैं
श्रेयस्तच्वार्थं श्लोकवार्त्तिकप्रवचनात्पूर्वं परापरगुरुप्रवाहस्याऽऽध्यानं तत्सिद्धिनिबन्धनत्वात् ।
इस अनुमानवाक्य ' तत्त्वार्थ श्लोकवाचिकप्रवचनात्पूर्वं परापर गुरुप्रवाहस्याभ्यानं ' यह पक्ष हैं, श्रेयस्त्व साध्य है और 'तत्सिद्धिनिबन्धनत्व' हेतु है । तत्त्वार्थश्लोकवाचिक महाग्रन्थ के आदि पर गुरु सर्वोत्कृष्ट तीर्थकरोंका और अपर गुरु गणधर से लेकर आम्नायके अनुसार निरंतर प्रवर्तनेवाली गुरुपरम्पराका पूर्णरूप से चिन्तन करना अत्यंत श्रेष्ठ है, क्योंकि लोकवाचिक अन्थकी निर्विघ्न समाप्तिका कारण गुरुजनोंका चिन्तन ही है ।
न्यायवेत्ता विद्वान् प्रत्यक्षित और आगमसिद्ध पदार्थों को भी अनुमानसे सिद्ध करनेकी अभिलाषा रखते हैं । अनुमानसे प्रमेयसिद्धि दृढता आ जाती है । चमत्कार भी प्रतीत होता है । एक ही अमिको आगम प्रमाण, अनुमान और प्रत्यक्ष से सिद्ध करने में विशिष्ट प्रमिति हो जाती है । ऐसे प्रमाण-संप्लवको जैनाचार्य भी इष्ट करते हैं । एक अमें विशेष - विशेषांशरूप से जाननेवाले अनेक प्रमाणकी प्रवृत्तिको प्रमाणसम्व कहते हैं ।
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सिद्धांत विषयोंको अनुमान प्रमाणसे सिद्ध करने, कराने में दूसरा यह भी प्रयोजन है कि लक्ष्यलक्षणभावकी अपेक्षा हेतुहेतुमद्भाव बना देने में गुणों और दोषोंका अधिक आदान प्रदान हो है । लक्षणके अव्याप्ति, अतिव्याति और असम्भव ये तीन दोष है । लक्षण में इनके होने से दूषण और न होनेसे भूषण है, किन्तु हेतुके दोष उक्त तीन दोषोंसे कहीं अधिक है । अव्याप्ति दोष भागासिद्ध हेत्वाभासमें गर्मित हो जाता है, और अतिव्याप्ति व्यभिचारमै गतार्थ है तथा असम्भव असिद्ध हेत्वाभासमें प्रविष्ट हो जाता है। फिर भी हेतुके कतिपय सत्प्रतिपक्ष, बाघ, अकिञ्चित्कर, विरुद्ध आदि दोष लक्ष्यलक्षणभावसे प्राप्त लक्षणाभासमें देनेसे शेष रह जाते हैं । अतः लक्ष्यको साध्य बनाकर और लक्षणको हेतु बनाकर अनुमान द्वारा पदार्थोंकी सिद्धि कर देनेसे वादीको व्याप्ति, हांत द्वारा सर्व दोषों को हटाकर स्पष्टरूपसे कथन करनेका अवसर मिल जाता है, और प्रतिवादीको दोषोत्थापन करनेका पूरा क्षेत्र (मैदान) प्राप्त हो जाता है। जैनाचार्यों का यह औदार्य प्रशंसनीय है । " वादे वादे जायते तत्त्वबोधः " प्रमाण और तर्कणाओंसे स्वपक्षकी सिद्धि और अन्य पक्ष दूषण बताते हुए तस्त्र निर्णय या जीतने की इच्छा से भी कदाग्रहरहित वादियों के परस्पर में हुए संवादको बाद कहते हैं। ऐसे वाद संवादके होते रहते वस्तुभूत तत्वोंकी झलक हो जाने पर हेय - उपादेय-तत्वों का निर्वाध बोध हो जाता है । यह सिद्धान्त भी दोष और गुण