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14 :: तत्त्वार्थसार
शंका-धर्मद्रव्य को समझाने के लिए जल और मछली का ही उदाहरण क्यों दिया है?
समाधान-जल में रहनेवाले समस्त जीव-जन्तुओं में से मछली ही ऐसा जीव है जो हजार फुट ऊपर से नीचे गिरते हए जल के सहारे ऊपर की ओर जा सकता है। मछली चाहे तो उस गिरते हुए जल के बीच रुक भी सकती है जल उसे नीचे नहीं गिरा सकता है, अत: गाथा में 'अच्छंता णेव सो णेई' कहा है अर्थात् ठहरे हुए जीव, पुद्गल को धर्मद्रव्य चला नहीं सकता है, क्योंकि धर्मद्रव्य गति में प्रेरक निमित्त नहीं है, उदासीन निमित्त है। इससे सिद्ध हुआ कि जिस प्रकार गिरते हुए जल के सहारे मछली ऊपर की ओर गमन कर सकती है। उसी प्रकार धर्मद्रव्य के सहारे जीव सिद्धालय तक गमन करते हैं। पुद्गल परमाणु भी एक समय में चौदह राजु लोकाकाश तक गमन कर सकता है। वैज्ञानिक धर्मद्रव्य को ही 'ईथर' कहते हैं।
लोक-व्यवहार में प्रचलित मान्यता है कि ईश्वर की मर्जी के बिना तो पेड़ का पत्ता तक भी नहीं हिल सकता है अर्थात् जीव और पुद्गल के गमनागमन में किसी ईश्वर का सहयोग होता है। वह अज्ञात ईश्वरीय शक्ति और कोई नहीं, बल्कि धर्मद्रव्य (ईथर) ही है।
ठहरते हुए जीव और पुदगल को ठहरने में अधर्मद्रव्य सहायक होता है। जैसे-ठहरते हए पथिक को वृक्ष की छाया ठहरने में सहायक है।
जैनाचार्यों ने अधर्मद्रव्य को समझाने के लिए गाथा में दृष्टान्त दिया है-"छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई।" इस छाया और पथिक के दृष्टान्त में, जिस प्रकार चलते हुए पथिक को छाया रोकती नहीं है उसी प्रकार अधर्मद्रव्य, गमन करते हुए जीव और पुद्गल को रोकता नहीं है।
शंका-अधर्मद्रव्य को समझाने के लिए छाया और पथिक का ही दृष्टान्त क्यों दिया?
समाधान-जिस प्रकार छाया वृक्ष के नीचे आस-पास ही रहती है, ऐसा नहीं है कि छाया वृक्ष के ऊपर हो और वृक्ष नीचे हो; अतः जब कोई चलता हुआ पथिक वृक्ष की छाया देखकर वहाँ रुकना चाहता हो तब वह उस वृक्ष की छाया में रुक जाता है। यदि उसे उस वृक्ष की छाया में नहीं रुकना है, तब उस वृक्ष की छाया के नीचे से निकलते हुए भी, वृक्ष की छाया उसे रोकती नहीं है। अतः गाथा में "गच्छंता णेव सो धरई' कहा है। वैज्ञानिक अधर्म द्रव्य को 'मूमेंट्स् आफ एनर्सिया' 'जड़त्व आघूर्ण' का सिद्धान्त कहते हैं। अधर्मद्रव्य की वह जड़ता रुकते हुए जीव और पुद्गल को रुकने में सहायक होती है।
अधर्मद्रव्य, धर्मद्रव्य का प्रतिलोम है। ये दोनों नित्य, अवस्थित एवं अरूपी हैं। इनमें स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्ण का अभाव है। ये लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त हैं। धर्म और अधर्म द्रव्य एक-एक अखण्ड द्रव्य हैं एवं दोनों असंख्यात प्रदेशी हैं प्रदेशत्व गुण के कारण धर्मद्रव्य एवं अधर्म द्रव्य का आकार लोकाकाश की श्रेणी के आकार का है, क्योंकि इन्हीं के सहारे जीव और पुद्गल की गति-स्थिति होती है।
__ अजीव द्रव्यों में महत्त्वपूर्ण आकाश एक अखण्ड, अनन्तप्रदेशी द्रव्य है, क्योंकि इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म एवं काल-ये सभी द्रव्य अपने-अपने प्रदेश संख्यानुसार व्याप्त होकर रहते हैं, अत: जैन दर्शन में आकाश द्रव्य के लोकाकाश एवं आलोकाकाश-ये दो भेद किये हैं। लोकाकाश में ही जीवादि द्रव्यों का निवास होता है। लोक के बाहर अनन्त अलोकाकाश है । द्रव्यों में प्रदेशत्व गुण के कारण आकाश का आकार समघन चतुरस्त्र
है।
22. द्र.सं., गा. 18 23. तत्त्वा .सू., अ. 5, सू. 4, 13, 6, 8 24. द्र.सं., गा. 19-20
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