Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ प्रस्तावना :: 13 द्रव्य, अस्तिकाय, तत्त्व, पदार्थ मानकर इसका विशेष विश्लेषण किया जाता है तभी सभी दूषित भ्रान्तियाँ दूर होती हैं। जैन दर्शन में अजीव द्रव्यों का विभाजन धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल एवं काल, इन पाँच प्रकार से किया है। इनमें से प्रथम चार एवं एक जीवद्रव्य इन पाँचों को पंचास्तिकाय कहा है, क्योंकि इनके अनेक प्रदेश होते हैं। काल द्रव्य का एक ही प्रदेश है. अतः वह काय नहीं है। अपनी भाषा में समझें तो यूँ कह सकते हैं कि छहों द्रव्य अस्ति (सत्) रूप तो हैं, क्योंकि द्रव्य का लक्षण सत् कहा है। किन्तु छहों द्रव्य 'सत्' होते हुए भी, प्रथम पाँच द्रव्य कायवान् (बहुप्रदेशी) हैं, अत: ये पाँच द्रव्य अस्ति के साथ कायवान् होने से अस्तिकाय हैं। कालद्रव्य अस्तिरूप तो है लेकिन कायवान् नहीं है इसलिए कालद्रव्य को अस्तिकाय नहीं कहा अर्थात् कालद्रव्य की काय रूप अस्ति नहीं होने से कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है। जैन सिद्धान्त के नियमानुसार अजीव द्रव्यों में अनेक परिवर्तन होने पर भी कभी इनका नाश नहीं होता है, इसी कारण से इन द्रव्यों को 'सत्' कहा है। यदि इन द्रव्यों में परिवर्तन न हो तो सभी द्रव्यों में कटस्थता का प्रसंग आ जाएगा। जहाँ पुद्गल द्रव्य में स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्ण ये असाधारण गुण पाये जाते हैं" वहीं अन्य द्रव्यों में ये गुण नहीं पाये जाते हैं क्योंकि प्रत्येक द्रव्य में अस्तित्व आदि साधारण गुण एवं चेतनत्व, जड़त्व आदि अलगअलग असाधारण गुण पाये जाते हैं जिन्हें स्वाध्याय करने वाला प्रत्येक व्यक्ति जानता है। धर्म. अधर्म एवं आकाश एक-एक. क्रिया रहित, अखण्ड द्रव्य हैं। जीव और पुदगल द्रव्य क्रिया सहित, अनेक द्रव्य हैं। काल द्रव्य एक प्रदेशी होता हुआ भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरण नहीं होता है। ये सभी द्रव्य लोकाकाश में अवगाहन करते हैं।" सामान्य रूप से धर्म और अधर्म का अर्थ 'पुण्य' और 'पाप' रूप से लिया जाता है, लेकिन यहाँ धर्मअधर्म द्रव्य का सम्बन्ध पुण्य और पाप से न होकर उन अजीव द्रव्यों की उस निष्क्रिय शक्ति से है जो गति स्थिति करने वाले, जीव और पुद्गल को क्रमश: गति-स्थिति में उदासीन रूप से सहकारी होते हैं, उपकार करते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जीव और पुद्गल की अपनी गति-स्थिति नहीं होती है, बल्कि धर्म-अधर्म द्रव्य दोनों माध्यम हैं, जिनके द्वारा जीव और पुद्गल की गति-स्थति में उदासीन रूप से सहायता मिलती है। जैनाचार्यों ने धर्मद्रव्य को समझाने के लिए गाथा में कहा है-'तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेव सो णेई।" जैसे-पानी चलती हुई मछली को चलने में उदासीनरूप से सहायता करता है, ठहरी हुई मछली को पानी नहीं चलाता है। वैसे ही गमन करते हुए जीव और पुद्गल को गमन करने में सहकारी धर्मद्रव्य होता है। ठहरे हुए जीव और पुद्गल को धर्मद्रव्य नहीं चलाता है। 14. तत्त्वा . सू., अ. 5, सू. 29 15. द्र. सं., गा. 24-25 16. तत्त्वा .सू., अ. 5, सू. 30 17. तत्त्वा .सू., अ. 5, सू. 23 18. तत्त्वा.सू., अ. 5, सू. 6-7 19. तत्त्वा.सू., अ. 5 सू. 12 20. तत्त्वा .सू., अ.5, सू. 17 21. द्र.सं., गा. 17-18 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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