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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी स्थूलत्व, सूक्ष्मत्व, अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, अमूर्तित्व और मूर्तित्व आदि अनेक धर्मोसे संयुक्त है और पर द्रव्योंके सम्बन्धसे विरक्त है, इस लिये ऐसा चिद्रूप सदा मेरे हृदयमें विराजमान रहो ।
भावार्थ:-यह चित्स्वरूप आत्मा निश्चयनयसे कर्मोसे सर्वथा रहित है, इसलिये शून्य है, व्यवहारनयसे कर्मोंसे सम्बद्ध है, इसलिये अशून्य भी है । स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षा अस्तिस्वरूप है, परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल
और परभावकी अपेक्षा नास्तिस्वरूप है । स्वस्वरूपसे सदा विद्यमान रहता है. इसलिये द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा नित्य है और प्रति-समय इसके ज्ञान-दर्शन आदि गुणोंमें परिणमन हुआ करता है, इसलिये पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा अनित्य भी है । कर्मोसे क्षीर-नीरकी तरह एकमेक है, इसलिये कथंचित् मूर्त भी है और निश्चयनयसे कर्मोसे सदा जुदा है, इसलिये कथंचित् अमूर्त भी है । इसीप्रकार वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि भी गुण इसके अन्दर विराजमान हैं और शरीर आदि बाह्य द्रव्योंसे यह सर्वथा रहित है ।। १८ ।।
ज्ञेयं दृश्यं न गम्यं मम जगति किमप्यस्ति कार्य न वाच्य ध्येयं श्रव्यं न लभ्यं न च विशदमतेः श्रेयमादेयमन्यत् । श्रीमत्सर्वज्ञवाणी जलनिधिमथनात् शुद्धचिद्रूप रत्नं यस्माल्लब्धं मयाहो कथमपि विधिनाऽप्राप्तपूर्वप्रियं च ॥ १९ ॥ ____ अर्थः-भगवान सर्वज्ञकी वाणीरूपी समुद्रके मंथन करनेसे मैंने बड़े भाग्यसे शुद्धचिद्रूपरूपी रत्न प्राप्त कर लिया है और मेरी बुद्धि पर पदार्थोंको निज न माननेसे स्वच्छ हो चुकी है, इसलिये अब मेरे संसार में कोई पदार्थ न जानने लायक रहा
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