________________
प्रथम अध्याय ]
[९ अनन्तज्ञानस्वरूप, अनन्तदर्शनस्वरूप, अनन्तसुखस्वरूप आदि कहते हैं; परन्तु वास्तवमें यह एक स्वरूप-चेतनस्वरूप ही है । जो मनुष्य मोहके नशेमें मत्त है-परद्रव्योंको अपना मान सदा उनमें अनुरक्त रहते हैं, वे रत्ती भर भी इस चिदानंदस्वरूप आत्माका पता नहीं पा सकते; किन्तु जो मोहसे सर्वथा रहित हैं-पर पदार्थोंको जरा भी नहीं अपनाते, वे बहुत ही जल्दी इसके स्वरूपका आस्वाद कर लेते हैं ।। १६ ॥
चिद्रूपोऽयमनायंतः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः । कर्मणाऽस्ति युतोऽशुद्धः शुद्धः कर्मविमोचनात् ॥ १७ ॥
अर्थः-यह चिदानंदस्वरूप आत्मा, अनादि अनन्त है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों अवस्था स्वरूप है । जब तक कर्मोंसे युक्त बना रहता है, तब तक अशुद्ध और जिस समय कर्मोंसे सर्वथा रहित हो जाता है, उस समय शुद्ध हो जाता है ।
भावार्थ:-यह चिदानंदस्वरूप आत्मा कब हुआ और कब नष्ट होगा ऐसा नहीं कह सकते, इसलिये अनादि-अनन्त है। कभी इसकी घटज्ञानरूप पर्याय उत्पन्न होती है और कभी वह नष्ट होती है तथा इसका चेतनास्वरूप सदा विद्यमान रहता है, इसलिये यह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों अवस्थाओंका धारक है । और जब तक यह कर्मोके जालमें फँसा रहता है तब तक तो अशुद्ध रहता है और कर्मोंसे सर्वथा जुदा होते ही शुद्ध हो जाता है ॥ १७ ॥ शून्याशून्यस्थूलसूक्ष्मोस्तिनास्तिनित्याऽनित्याऽमूर्तिमूर्तित्वमुख्यैः । धयुक्तोऽप्यन्यद्रव्यैविमुक्तः चिद्रपोयं मानसे मे सदास्तु ॥१८॥
अर्थः-यह चैतन्यस्वरूप आत्मा शून्यत्व, अशून्यत्व, त. २
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org