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तब होता है ध्यान का जन्म
ठीक वैसे ही जब तक कायोत्सर्ग सम्यक नहीं सधता तब तक ध्यान का अवतरण नहीं हो सकता। कषाय-निग्रह और संयम
दूसरा तत्त्व है-कषाय-निग्रह। क्रोध, मान, माया, लोभ-इनका निग्रह होना चाहिए। इनका निग्रह नहीं होता है तो ध्यान का अवतरण नहीं हो सकता। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ध्यान का प्रारम्भ करने वाला वीतराग बनकर आए। यदि वीतराग बन जाए तो ध्यान की जरूरत ही नहीं है। उसके स्वत: ध्यान सिद्ध हो गया। यह संभव नहीं है किन्तु एक सीमा तक निग्रह करने का दृढ़ निश्चय होना चाहिए। क्रोध को कम करूंगा, अहंकार को कम करूंगा, कपट और लोभ को कम करूंगा-यह निश्चय होता है तो ध्यान का अवतरण होता है।
तीसरा तत्त्व है-संयम। यदि जीवन में कोई संयम नहीं है तो ध्यान कहां से आएगा? असंयम की परिस्थिति में ध्यान का जन्म नहीं होता। मन का निग्रह
चौथा तत्त्व है-मन का निग्रह, मनोविजय। मन की चंचलता है तो ध्यान का जन्म नहीं हो सकता। प्रश्न वही उभरता है-मन की एकाग्रता पहले हो या ध्यान पहले हो? हम ध्यान का प्रयोग मन की चंचलता को मिटाने के लिए करते हैं पर साथ-साथ यह अनुभूति होनी चाहिए कि अभी जो प्रयोग प्रारंभ कर रहे हैं, वह ध्यान नहीं कर रहे हैं, ध्यान का वातावरण बना रहे हैं। कहा जाता है--श्वास को देखें । इसका अर्थ है-श्वास को देखना ध्यान का वातावरण बनाना है। श्वास-प्रेक्षा का प्रयोग करना ध्यान के लिए उचित भूमि तैयार करना है। जिसने श्वास को देखना सीख लिया, उसने मन की चंचलता को कम करने का अभ्यास कर लिया। जैसे ही चंचलता कम होगी, ध्यान का अवतरण हो जाएगा। ध्यान की पृष्ठभूमि
महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन में अष्टांग योग की एक व्यवस्थित पद्धति का प्रतिपादन किया है। अष्टांग योग का प्रारम्भ होता है आसन, प्राणायम, यम और नियम से। उसके बाद होता है प्रत्याहार, धारणा। फिर सातवां नम्बर आता है ध्यान का। यह पृष्ठभूमि है ध्यान की। प्रत्येक ध्यान-प्रणाली के साथ आसन-प्राणायाम बहुत आवश्यक है। व्यक्ति ध्यान करता है, आसन नहीं करता है तो पाचन-तंत्र में गड़बड़ी हो सकती है। ध्यान को व्यवस्थित करने के लिए आसन का होना जरूरी है। प्राणायाम और प्रत्याहार भी आवश्यक है। हम शरीर को देखते चले गए, श्वास को देखते चले गए, यह वास्तव में धारणा है, ध्यान का पहला रूप है। ध्यान का जन्म कब होगा? जब एक-प्रत्यय
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