Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
पोंडरीए बुइए । रायाणं च खलु मए अप्पाहट्टु समणाउसो ! से एगे महं पउम - वरपोंडरीए बुइए । अण्ण-उत्थिया य खलु मए अप्पाहट्टु समणाउसो ! ते चत्तारि पुरिसजाया बुझ्या । धम्मं च खलु मए अप्पाहट्टु समणाउसो ! से भिक्खू बुझ्ए । धम्म-तित्थं च खलु मए अप्पाहट्टु समणाउसो ! से तीरे बुझ्ए । धम्म कहं च खलु मए अप्पाहड्ट्टु समणाउसो ! से सद्दे बुझ्ए । णिव्वाणं च खलु मए अप्पाहट्टु समणाउसो ! से उप्पाए बुइए । एवमेयं च खलु मए अप्पाहट्टु समणाउसो ! से एवमेर्य बुइयं ॥ ८ ॥ कठिन शब्दार्थ - अप्पाहॣ - अपनी इच्छा से मान कर (एक अपेक्षा से) उदए - उदक- जल, सेए- कीचड़, जण जन-आर्य देश के मनुष्य, जाणवयं जनपद को अर्थात् देशों को, अण्णउत्थियाअन्यतीर्थिक, धम्मं - धर्म को, धम्मतित्थं - धर्म तीर्थ को, णिव्वाणं - निर्वाण मोक्ष को ।
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भावार्थ - श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्रमण और श्रमणियों से कहते हैं कि - यह जो विविध प्रकार के मनुष्यों से परिपूर्ण लोक हैं इसको तुम एक प्रकार की पुष्करिणी समझो। जैसे पुष्करिणी अनेक प्रकार के कमलों का आधार होती है इसी तरह यह मनुष्य लोक भी नाना प्रकार के मनुष्यों का आधार है अतः इस तुल्यता को लेकर मनुष्य लोक को मैंने पुष्करिणी का रूपक दिया है। जैसे पुष्करिणी में जल के कारण कमलों की उत्पत्ति होती है इसी तरह आठ प्रकार के कर्मों के कारण मनुष्य लोक में मनुष्यों की उत्पत्ति होती है अतः जल से कमल की उत्पत्ति के समान कर्मों से मनुष्य की उत्पत्ति होने के कारण मैंने आठ प्रकार के कर्मों को लोकरूपी पुष्करिणी का जल कहा है । तथा पुष्करिणी के महान् कीचड़ में फंसा हुआ पुरुष जैसे अपना उद्धार करने में समर्थ नहीं होता है इसी तरह विषय भोग में निमग्न प्राणी अपना उद्धार करने में समर्थ नहीं होते हैं अतः विषय भोग को कीचड़ के समान फंसाने वाला समझ कर मैंने विषयभोग को मनुष्य लोक रूपी पुष्करिणी का कीचड़ कहा है। जैसे पुष्करिणी में नाना प्रकार के कमल होते हैं इसी तरह इस मनुष्य लोक में नाना प्रकार के मनुष्य निवास करते हैं अतः मैंने मनुष्य लोक में निवास करने वाले मनुष्यों को मनुष्य लोकरूपी पुष्करिणी के बहुत से कमल कहे हैं। जैसे पुष्करिणी के समस्त कमलों में प्रधान एक उत्तम और सबसे बड़ा श्वेत कमल है। इसी तरह मनुष्य लोक के सब मनुष्यों से श्रेष्ठ और सब का शासक एक राजा होता है, उस राजा को मैंने मनुष्य लोक रूपी पुष्करिणी का सबसे बड़ा कमल कहा है। जैसे कोई निर्विवेकी मनुष्य उस पुष्करिणी के उस प्रधान श्वेत कमल को निकालने के लिये पुष्करिणी में प्रवेश करके उसके महान् कीचड़ में फंस कर अपने को तथा उस कमल को बाहर निकालने के लिये समर्थ नहीं होता है इसी तरह जो मनुष्य, मनुष्य लोक रूपी पुष्करिणी के विषय भोग रूपी कीचड़ में फंसा हुआ है वह अपने को तथा मनुष्यों में प्रधान राजा आदि को संसार से उद्धार करने में समर्थ नहीं होता है, इस तुल्यता को ले कर मैंने विषयभोग में प्रवृत्त अन्यतीर्थियों को वे, चार पुरुष कहे हैं, जो उत्तम श्वेत कमल को
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