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श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रम्
(सम्पादकीय उद्गार
शासन गौरव, आचार्यप्रवर श्री सुदर्शनलाल जी म.सा. विश्व के धार्मिक किंवा आध्यात्मिक वाङ्मय में अर्धमागधी जैनागमों का अनेक दृष्टियों से असाधारण महत्त्व है । यह वह अत्यन्त प्राचीन साहित्य है जिसमें मानव की उर्ध्वमुखी चेतना की जीवन्त विकासयात्रा का लेखा-जोखा है । भौतिक सम्पदा, वैभव और विलासिता में सच्ची शान्ति का अनुभव न कर उस परमशांति के प्रयास और उपलब्धि की वह गाथा इनमें है, जिससे परिश्रान्त मानव को अपने आपका व परमात्मा का साक्षात्कार हुआ, अनुपम निर्वेद और प्रशान्त भाव का अनुभव हुआ।
ऐहिक और पारलौकिक जीवन का विशद लेखा-जोखा इनमें है । पारलौकिक दृष्टि से जहाँ व्रत, संयम, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, सन्तोष आदि पवित्र भावों का चित्रण है वहीं सहस्रों वर्षों के जनजीवन का विस्तृत इतिवृत्त भी इनमें है, अध्यात्म और लोक - इन दोनों ही दृष्टियों से इनमें विपुल अध्येय सामग्री है । यह महनीयता और उपयोगिता ही वह कारण है जिससे भगवान् महावीर के उत्तरवती अनेक आचार्यों और मनीषी संतों ने नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका आदि की दृष्टि से आगमों पर विपुल परिमाण में विवेचन, विश्लेषण एवं व्याख्यामूलक साहित्य का प्रणयन किया । आगमों में संसूचित, सांकेतित सिद्धान्तों के बहुमुखी विश्लेषण और विशदीकरण की दृष्टि से आगमों पर रची गई संस्कृत टीकाओं का अत्यन्त महत्त्व है ।
- यह बड़े हर्ष का विषय है कि अध्ययन के क्षेत्र में आज व्यापकता का संचार हुआ है । कुछ समय पूर्व अपने स्वीकृत धर्म के अतिरिक्त इतर धर्मों के साहित्य के अध्ययन में लोग अरुचि रखते थे । आज वैसा नहीं है । लोगों में अन्य दर्शनों और धर्म सिद्धान्तों के अध्ययन में अभिरूचि उत्पन्न हुई है । अनेक विश्वविद्यालयों एवं विद्यापीठों में और जैन दर्शन, संस्कृति, धर्म, आगम इत्यादि विषयों पर अनुसंधित्सुवृन्द शोधकार्य में संलग्न है । अनेक विश्वविद्यालयों में जैन पीठ - Jain Chairs संस्थापित हैं । मद्रास विश्वविद्यालय, उदयपुर विश्वविद्यालय, मगध विश्वविद्यालय आदि विद्या-केन्द्रों में जैन-विद्या के विभाग चल रहे हैं, जहाँ विद्यार्थी-अनुसंधानार्थी अध्ययन एवं शोधकार्य में संलग्न हैं । यह अनुकूल समय है जब जैनदर्शन के अनेक सिद्धान्तों पर आश्रित विश्वजनीत विचारों को विद्वद्भोग्य एवं लोकभोग्य बनाया जा सकता है, अतः उच्च कोटि का जैन-साहित्य प्रकाश में आना चाहिए ।
वर्तमान समय में साहित्य का प्रकाशन तो बहुत हो रहा है, पर उसमें आगम एवं आगमों से संबंधित साहित्य अत्यल्प है । दर्शन एवं सिद्धान्त को समझने हेतु आगमिक साहित्य की अत्यधिक आवश्यकता है, किन्तु आगमिक रूचि कम होने से कथा, प्रवचन, भजनादि से परिपूर्ण सामान्य साहित्य ही अधिक दृष्टिगोचर होता है या यों कहा जाये कि आवश्यकता को गौण कर अनावश्यक को अधिक प्रोत्साहन दिया जा रहा है ।
आराध्यदेव श्रद्धेय आचार्यप्रवर पूज्य गुरुदेव श्री सोहनलाल जी म.सा. एवं प्रवचन प्रभाकर श्रद्धेय वल्लभमुनि जी म.सा. की यह हार्दिक अभिलाषा थी कि हमें आगमों के साथ आगमिक टीकाओं का
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