Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 6
________________ - श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् । ( प्रकाशकीय भारतवर्ष सदा से धर्मप्रधान देश रहा है । यहाँ श्रमण एवं ब्राह्मण परम्परा की प्रधानता रही । ब्राह्मण परम्परा वेदानुगामी थी - वेद उसका प्रमुख धर्मशास्त्र था जबकि श्रमण परम्परान्तर्गत बौद्धों के धर्मशास्त्र 'पिटक' एवं जैनों के धर्मशास्त्र ‘आगम' कहलाते थे । ___ वर्तमान में उपलब्ध आगमों में से ग्यारह अंग शास्त्र भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट एवं उनके प्रधान शिष्यों - गणधरों द्वारा संग्रथित हैं । प्रभु महावीर का विचरण-क्षेत्र मुख्यतः मगध देश (वर्तमान में बिहार राज्य) रहा अतः वहाँ प्रयुक्त होने वाली अर्धमागधी भाषा में इन आगमों का संग्रथन होना स्वाभाविक था । महावीर के काफी समय बाद तक यह आगम - ज्ञान श्रुत-परम्परा से सुरक्षित रहा किन्तु शनैः शनैः स्मृति-दौर्बल्य के कारण उसमें भूल पड़ने लगी अतः देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय समस्त आगम-साहित्य को पुस्तकारुढ किया गया । आगमों में वर्णित समस्त सिद्धान्तों व उपदेशों की स्पष्टता व विशद व्याख्या के लिए परवर्ती आचार्यों द्वारा चूर्णि, भाष्य एवं टीकाएं लिखी गई । टीका-साहित्य संस्कृत भाषा में था जो अपनी व्याकरणिक जटिलता के कारण कालान्तर में सामान्य जनता के लिए अग्राह्य हो गई - उसका पठन-पाठन अल्प से अल्पतर होता गया । इसका परिणाम हुआ कि अनेक साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका आगमिक तत्वज्ञान की जिज्ञासा - पूर्ति में असमर्थ रहने लगे । संस्कृत व प्राकृत के ज्ञान की न्यूनता के कारण उन्हें आगमों का मर्म समझने में कठिनाई होने लगी । प्रवचन-प्रभाकर श्रद्धेय वल्लभमुनि जी म.सा. ने अपने अन्तेवासी लघु मुनियों व आज्ञानुवर्तिनी साध्वियों को अध्ययन कराते समय इसकी विशेष कमी महसूस की । उनके मन में एक भावना जगी कि क्यों न इन संस्कृत टीकाओं का राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद कराया जाय जो सर्वजन भोग्य बन सके । उस समय उनके विचार-जगत् में एक हलचल रही । लक्ष्यपूर्ति के लिए उन्होंने टीकाओं का संकलन भी कराया किन्तु असमय में ही उनके कालधर्म को प्राप्त हो जाने से, यह विचार, उनके जीवनकाल में मूर्तरूप नहीं ले सका । तत्पश्चात् आचार्यप्रवर श्रद्धेय सुदर्शनलाल जी म.सा. एवं ओजस्वी वक्ता श्रद्धेय प्रियदर्शनमुनि जी म.सा. ने भी लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् श्रीमान् डॉ. छगनलाल जी सा. शास्त्री से अध्ययन करते समय यही कमी महसूस की एवं इन टीकाओं का हिन्दी में अनुवाद कराने का अपना विचार स्वाध्याय-शिरोमणि, श्रद्धेय आचार्यप्रवर श्री सोहनलाल जी म.सा. की सेवा में प्रस्तुत किया । श्रद्धेय आचार्य प्रवर ने भी इस कार्य की उपादेयता मानते हुए ग्यारह अङ्गशास्त्रों की शीलंकाचार्य एवं अभयदेव सूरि रचित टीकाओं का अनुवाद प्रकाशित कराने की स्वीकृति प्रदान की। श्रद्धेय आचार्यप्रवर श्री सोहनलाल जी म.सा. के शुभाशीर्वाद एवं वर्तमान आचार्यश्री सुदर्शनलाल जी म.सा. व ओजस्वी वक्ता श्रद्धेय प्रियदर्शन मुनि जी म.सा. के परिश्रम का ही यह सुफल है कि तत्काल योजनानुसार कार्य प्रारंभ किया गया एवं विद्वद्वरेण्य श्रद्धेय डॉ. छगनलाल जी सा. शास्त्री के परामर्श व मार्गदर्शनानुसार सूत्रकृताङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध की शीलंकाचार्यकृत टीका का अनुवाद प्रकाश में आया । आगम के पाठकों को इसे समर्पित करते हुए आज हमें अपार हर्ष है । vi

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