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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
समर्पण
हे क्रान्तिदूत,
वन्दन ।
हे धर्मज्योति, आचार्यप्रवर तुमको हे आशुकवि, यहाँ सरलहृदयबन, किया दया का नव गुंजन ॥ पाकर पाद-पद्मों का स्पर्श, अन्तर को नूतन भाव मैं क्लान्त हृदय चलकर आया, उसी महा-विटप की छाँव तले ॥
मिले ।
सोऽहम् भाव को जाग्रतकर, जग-पीड़ा का किया यह कृति समर्पण तुम्हें देव, मन-मस्तक करता पुनः नमन ॥
हनन ।
जो कलम आपने दी मुझको, यह उसका स्वामी ! प्रतिफल है । जो भागीरथी
बहाई तुमने, कलकल है ॥
यह रचना
उसका
V
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आचार्य सुदर्शन मुनि