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तब मेरे मनमें इस भावनाका उदय हुआ कि, केवल धार्मिक दृष्टिहीसे नहीं बल्के ऐतिहासिक और धार्मिक दोनों दृष्टियोंसे, हीरविजयसूरि और अकबरसे संबंध रखनेवाला एक स्वतंत्र ग्रंथ लिखना चाहिए । इस विचारको कार्य में परिणत करनेके लिए मैंने उसी चातुर्माससे इस विषयके साधन एकत्र करनेका कार्य प्रारंभ कर दिया। जब कार्य प्रारंभ किया था तब, स्वप्नमें भी, मुझे यह खयाल न आया था कि, मैं इस विषयमें इतना लिख सकूँगा, मगर जैसे जैसे मैं गहरा उतरता गया और मुझे अधिकाधिक साधन मिलते गये वैसे ही वैसे मेरा यह कार्यक्षेत्र विशाल होता गया; और उसका परिणाम यह हुआ कि, जनताके सामने मुझे, अपने इस क्षुद्र प्रयासका फल उपस्थित करनेमें दीर्घकालका भोग देना पड़ा । साधुधर्मके नियमानुसार एक वर्ष आठ महीनेतक हमें पैदल ही परिभ्रमण करना पड़ता है इससे भी पुस्तकके तैयार होनेमें बहुत ज्यादा समय लग गया ।
इस पुस्तकमें यथासाध्य, प्रत्येक बातकी सत्यता इतिहासद्वारा ही प्रमाणित करनेका प्रयत्न किया गया है । इसी लिए हीरविजयसूरिके संबंधकी कई ऐसी बातें छोड़ दी गई हैं, जिन्हें लेखकोंने केवल सुनकर ही बिना आधारके लिख दिया है। मैंने इस ग्रंथमें केवल उन्हीं बातोंका मुख्यतया, उल्लेख किया है जिन्हें हीरविजयमूरिने अथवा उनके शिप्योंने अपने चारित्रगल और उपदेशद्वारा की-कराई थीं
और जिनको जैन लेखकोंके साथ ही अन्यान्य इतिहासकारोंने भी लिखा है। इस ग्रंथको पढ़नेवाले भली भाँति जान जायँगे कि, हीरविजयसूरि और उनके शिष्योंने, केवल अपने चारित्रबल और उपदेशके प्रभावहीसे, अकबरके समान मुसलमान सम्राटपर गहरा असर डाला था । यही कारण था कि जैनोंका संबंध मुगल साम्राज्यके साथ अकबर तक ही नहीं रहा बल्के पीछे ४, ५ पीढ़ी तक
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