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प्रस्तावना।
जनसाधुआन गुजरसाहित्यकी सेवा सनत ज्यादा का ह । इस बातको वर्तमानके सभी विद्वानोंने, अब स्वीकार कर लिया है। मगर देशसेवा करनेमें भी जैनसाधु किसीसे पीछे नहीं रहे हैं, इस बातसे प्रायः लोक अजान हैं । कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्य और ऐसे ही दूसरे अनेक जैनविद्वान् हो गये हैं कि जिनका सारा जीवन देशकल्याणके कार्योंमें ही व्यतीत हुआ था। यह बात,उनकी कार्यावलीका सुक्ष्मदृष्टिसे निरीक्षण करनेपर, स्पष्टतया मालुम हो जाती है। वे दृढतापूर्वक मानते थे कि-" देशकल्याणका आधार अधिकारियोंकीसत्ताधारियोंकी अनुकूलतापर अवलम्बित है।" और इसी लिए उनका यह विश्वास था कि,-" लाखों मनुष्योंको उपदेश देनेसे जितना लाभ होता है उतना ही लाभ एक राजाको प्रतिबोध देनेसे होता है।" इस मन्तव्य और विश्वासहीके कारण वे मानापमानकी कुछ परवाह न करके भी राज-दर्वारमें जाते थे और राजामहाराजाओंको प्रतिबोध देते थे । कहाँ प्राचीन जैनाचार्योंकी वह उदारता और कहाँ इस जीती-जागती बीसवीं सदीमें भी कुछ जैनसाधुओंकी संकोचवृत्ति ?
प्राचीन समयमें देशकल्याणके काम करनेवाले अनेक जनसाधु हुए हैं। उन्हींमसे हीरविजयसूरि मी एक हैं । ये महात्मा सोलहवीं शताब्दिमें हुए हैं । इन्होंने जैनसमाजहीको नहीं समस्त मारतको
और मुख्यतया गुजरातको महान् कष्टोंसे बचानेका प्रयत्न किया है और अपने शुद्ध चारित्रबलसे उसमें सफलता पाई है । इस बातको बहुत ही कम लोग जानते हैं। थोडे बहुत जैन हीरविजयसूरिके
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