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१४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर - १०
यद्यपि शाक्याचार्या राहुलादयस्तु मौग्ध्यमदभाविकत्वपरितपनादीनप्यलङ्कारानाचक्षते
तेऽस्माभिर्भरतमतानुसारिभिरुपेक्षिताः १२ ।
६. अलङ्कारों के विषय में हेमचन्द्राचार्य का स्वतन्त्र अध्ययन अभी तक अपेक्षित है। वे ध्वनिवाद के प्रभाव में अलङ्कार को काव्य की महासंज्ञा तो नहीं मान सके, किन्तु उनके विषय में उन्होंने अपने अध्ययन में कमी नहीं रखी। जो विषय जहाँ से मिला उसे उन्होंने वहाँ से अपनाया और मान्य तर्कों के आधार पर अपना निर्णय दिया। कुछ अलंकारों का आगे उल्लेख किया जाएगा।
आश्चर्य की बात
आश्चर्य की बात यह है कि हेमचन्द्राचार्य व्यञ्जना को अर्थवृत्ति कहते हुए भी महिमभट्ट के समान अनुमान घोषित नहीं कर सके, जबकि हेत्वाभासाश्रित अनुमान को सभी अनुमान ही कहते आए हैं। पितामह को पौत्र का पिता माना जा सकता है, परन्तु कहा नहीं जा सकता। बल्दियत में तो पिता ही लिखा जाएगा 'पिता' । काव्यशास्त्र भी शास्त्र है। इसकी व्यवस्था लोकविरुद्ध होने पर कोरी भावुकता ठहरेगी। वह ठुकराई जाएगी। व्यञ्जनावाद को जयन्तभट्ट ने ठोकर लगाई ही। श्रीश्रीहर्ष के 'नैषधीयचरित' का निम्नलिखित उद्गार भी वैसी ही ठोकर है
दिशि दिशि गिरिग्रावाणः स्वां वमन्तु सरस्वतीं तुलयतु मिथस्तामापातः स्फुरद्ध्वनिडम्बराम् । स पुनरपरः क्षीरोदन्वान् यदीयमुदीयते मथितुममृतं खेदच्छेदि प्रमोदनमोदनः ।। १३
ये दोनों मेधावी विद्वान् महान् दार्शनिक ग्रन्थकार ही नहीं, उत्तमोत्तम कवि भी हैं। स्वयं अभिनवगुप्त से ही साहित्यशास्त्र पढ़े क्षेमेन्द्र ने भी व्यञ्जना को शब्दवृत्ति नहीं कहा। रुद्रट, उद्भट, वामन, भामह, दण्डी, कुन्तक, महिमभट्ट आदि इसी पक्ष के आचार्य हैं। किन्तु मम्मट, जयदेव, विश्वनाथ कविराज. और एकावलीकार ध्वनिवाद में ही घिरे रहे और मम्मट द्वारा प्रस्तुत धूलीप्रक्षेप को ही प्रस्तुत कर संतोष करते रहे। इन आचार्यों ने अनुमान के विरोध में व्यञ्जकगत साध्य के साथ अनिश्चितता और सन्दिग्धता को उछाला था । वस्तुतः हेतुगत दोष अनुमान का बाधक न होकर अनुमानगत प्रामाण्य का बाधक