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आचार्य हेमचन्द्र काव्यशास्त्रीय परम्परा में अभिनवगुप्त के प्रतिकल्प : १५
होता है। जहाँ तक प्रामाण्य का सम्बन्ध है स्वयं ध्वनिवादी आनन्दवर्धन काव्य में उसे विरोधी घोषित कर चुके हैं। हेमचन्द्राचार्य इस कमी को दूर कर सकते थे। प्रसन्नता की बात इतनी ही है कि उन्होंने ध्वनिवाद को दृढ़ता के साथ प्रस्तुत नहीं किया। इन और ऐसी अन्य विशेषताओं के कारण हेमचन्द्राचार्य उदार काव्यशास्त्री ठहरते हैं।
___ व्याकरण और छन्दोनुशासन को भी हेमचन्द्राचार्य ने पुनः प्रस्तुति दी है जिसमें प्रक्रिया नई है, किन्तु निष्पत्ति वही है जो आवश्यक थी। शताब्दियों पूर्व जैन मनीषियों ने हेमचन्द्राचार्य के अनुसार धातुपाठ पर ग्रन्थ भी लिखे।
छन्दोनुशासन में हेमचन्द्राचार्य ने नाट्यशास्त्र से आगे बढ़कर प्रत्ययों की संख्या तीन से आगे पाँच मानी और सभी के लक्षण भी दिए तथा उदाहरण भी। जबकि भरत के नाट्यशास्त्र में प्रस्तार, उद्दिष्ट और नष्ट तीन ही प्रत्यय स्पष्ट थे।
अलंकारों के विषय में हेमचन्द्राचार्य का संग्रह तथा मनन स्तुत्य है। वे पूर्वाचार्यों के मत प्रस्तुत कर उनका विश्लेषण करते और अपना अभिमत प्रस्तुत करते हैं। यथास्वभावोक्ति
स्वभावोक्ति पर मम्मट के पूर्ववर्ती कुन्तक ने उसे अमान्य करते हुए जो तीक्ष्ण प्रहार किया था उसका वैसा ही उत्तर एकमात्र महिमभट्ट ने दिया था। हेमचन्द्राचार्य ने उसे अपनाया और वे संप्रदायवाद से तटस्थ रहे।
अन्य अलंकारों के विषय में भी हेमचन्द्राचार्य ने पुनर्विचार किया और अनेक नवीन निष्कर्ष प्रदान किए। कन्तक द्वारा अस्वीकृत समासोक्ति, सहोक्ति आदि पर हेमचन्द्राचार्य ने विचार किया और प्राचीन आचार्यों के मान्य तर्क प्रस्तुत किए। व्याजरूपा व्याजोक्ति में हेमचन्द्राचार्य ने अशिष्टता से बचने का आगाह किया। एक उदाहरण दिया
आसीन्नाथ पितामही तव मही माता ततोऽनन्तरं , जाया संप्रति भाविनी पुनरहो सैवानवद्या वधूः ।। १४
अर्थात् हे राजन्! भूमि पहले आपकी पितामही रही, फिर माता, उसके बाद प्रिय-जाया और आगे चलकर यही आपकी पुत्रवधू बनेगी।
सोचिए कि हेमचन्द्राचार्य कितनी सटीक बात कह रहे हैं। उन्होंने इसे अत्यन्त असभ्य उक्ति कहा है। यह कोई मर्यादावादी महापुरुष ही कह सकता है। अन्यथा वामन ने तो लक्ष्मी और विष्णु के प्रथम संभोग तक को पर