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उत्तराध्ययन सूत्र की सुखबोधा वृत्ति : एक समीक्षा : २३ जब व्यापारी दूर देश में व्यापार करने जाते थे तब उन्हें वहाँ के राजा की अनुमति प्राप्त करनी पड़ती थी। जो माल दूसरे देशों से आता था उसकी जाँच करने के लिए व्यक्तियों का एक विशेष समूह होता था।२७ कर भी वसूल किया जाता था। कर वसूल करने वालों को सूंकपाल (शुल्कपाल) कहा जाता था।१८ व्यापारियों के माल असबाब पर भी कर लगाया जाता था। व्यापारी लोग शुल्क से बचने के लिए अपना माल छिपाते भी थे।१९
इस वृत्ति से ज्ञात होता है कि उस समय समाज में कई अपराध भी होते थे। अपराध में चौर्य-कर्म प्रमुख था। चोरों के अनेक वर्ग इधर-उधर कार्यरत रहते थे। लोगों में चोरों का आतंक हमेशा बना रहता था। चोरों के अनेक प्रकार थे।२० कितने ही चोर इतने निष्ठुर होते थे कि वे चुराया हुआ माल छिपाने के लिये अपने कुटुम्बीजनों को भी मार देते थे। एक चोर अपना सम्पूर्ण धन एक कुएँ में रखता था। एक दिन उसकी पत्नी ने उसे ऐसा करते देख लिया। उस चोर ने भेद खुलने के भय से अपनी पत्नी को ही मार दिया। जब उसका पुत्र चिल्लाया तब लोगों ने उसे पकड़ लिया।२१
इसी प्रकार अन्य कितने ही तथ्य इस वृत्ति में उपलब्ध हैं जो तत्कालीन सांस्कृतिक जीवन को स्पष्ट करते हैं। इस वृत्ति की कई कथाएँ भी बहुत लोकप्रिय हुई हैं। सगर-पुत्र सनत्कुमार, ब्रह्मदत्त, मूलदेव, मंडित, अगडदत्त आदि की कथाएँ बहुत मनोरंजक हैं।२२
इस प्रकार सुखबोधा टीका अत्यन्त सरल, सुबोध एवं मार्मिक है। इसकी भाषा-शैली रोचक है। कथाओं एवं सांस्कृतिक दृष्टि से टीका महत्त्वपूर्ण है।
सन्दर्भ
१. श्रीविजयोमंगसूरि द्वारा सम्पादित आत्मवल्लभ ग्रन्थावली, वलाद, अहमदाबाद
से प्रकाशित सुखबोधावृत्ति। २. वही,सूत्र प्रथम ३. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, साध्वी संघमित्रा, पृ. ३११ ४. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, विस्तार के लिए देखें, विन्टरनित्स, भाग-२ ५. जगदीशचन्द्र जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. ३५ ६. भगवान् महावीर. एक अनुशीलन, देवेन्द्र मुनि शास्त्री, पृ. ५५ ७. उत्तराध्ययन सुखबोधा (वृत्ति) टीका, पृ. ८४ ८. वही, पृ. १४२ ९. वही, पृ. ९७