Book Title: Sramana 2010 10
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 51
________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर-२०१० वैदिक व श्रमण परम्परा में समान धार्मिक क्रियायें डॉ. मनीषा सिन्हा* [ वैदिक एवं श्रमण परम्परा में व्रत, तीर्थयात्रा, दान आदि की जो धार्मिक क्रियायें पूर्वकाल में प्रचलित थीं वे आज भी प्रचलित हैं। इनमें पापक्षय और पुण्य-लाभ की भावना रहती है। यदि ये वीतरागभाव से की जाती हैं तो मोक्ष-प्राप्ति में सहायक होती हैं।] इहलोक तथा परलोक को सुखी बनाने के लिए, पाप-प्रक्षालन तथा पुण्य-प्राप्ति हेतु लोग मुख्यतः तीर्थ, व्रत, दान आदि की धार्मिक क्रियायें सम्पादित करते हैं। तीर्थयात्रा करना एक ऐसा साधन है जो सामान्य जन को स्वार्थमय जीवन के कर्मों से दूर रखने में सहायक होता है। लोगों को उच्चतर एवं दीर्घकालीन नैतिक और आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों के विषय में सोचने को मार्ग प्रदान करता है। आपत्तियों से मुक्ति तथा लौकिक जीवन में शुद्धि-प्राप्ति की आशा में सामान्य जन द्वारा तीर्थ (पवित्र स्थानों) की यात्रा की जाती है। __ वैदिक परम्परा में अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, काँची, अवन्तिका, द्वारिका को मोक्षदायक तीर्थ माना गया है। अमावस्या, संक्रान्ति, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण पर गंगा-स्नान को असंख्य तीर्थ का फल माना गया है। महाभारत के वनपर्व में तीर्थयात्रा के पुण्य को अग्निष्टोम जैसे यज्ञ से उत्तम बताया गया है। अनुशासन पर्व में तीर्थयात्रा को पूर्ण पुण्य प्राप्त करने वाला कहा गया है। अग्नि पुराण में कहा गया है कि जिससे भोग-मोक्ष की प्राप्ति होती है वह तीर्थ है। जैन आगम जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति में मागधतीर्थ, वरदामतीर्थ, प्रभासतीर्थ का उल्लेख है। आवश्यक नियुक्ति में तीर्थ को महत्त्वपूर्ण कहा गया है। तीर्थंकर के जन्म, केवलज्ञान, तप और निर्वाण कल्याणकों से सम्बन्धित स्थलों को पवित्र तीर्थ माना गया है। * प्रवक्ता- प्राचीन इतिहास, श्री अग्रसेन क. स्वा. पी.जी. कालेज, वाराणसी

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