________________
४८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर-१०
अशुभ। अत: कर्म की पवित्रता से ही पुण्यास्रव होता है। तभी कोई व्यक्ति सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र (आचरण) से मुक्ति रूप परम पुरुषार्थ को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार जो मुक्ति की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं वे विशद्ध ज्ञान से समद्ध एवं उत्तम चरित्र के धारक हो जाते हैं। ऐसे ही महापुरुषों को अर्हत्, जीवन्मुक्त, सिद्ध या स्थितप्रज्ञ कहते हैं।
जैन-श्रमण मूलत: निर्ग्रन्थ होते हैं। अत: त्याग-प्रधान इस धर्म में अहिंसा को प्रमुख माना है। सभी जीवों पर दयाभाव इस धर्म की प्रमुख विशेषता है। इस धर्म में वनस्पतियों में भी जीव माना गया है। अत: पर्यावरण को भी इस धर्म का प्रमुख अंग माना जा सकता है। सर्वधर्मसमभाव की भावना के कारण ही जैन-दर्शन में अनेकान्तवाद एवं स्यावाद की अवधारणा को बल मिला। इस महाकाव्यकार ने दार्शनिक पाण्डित्य को अपने काव्य में स्थान नहीं दिया है।
- यद्यपि इस महाकाव्य में अन्य दर्शनों का भी उल्लेख हुआ है किन्तु उनके सिद्धान्तों का खण्डन करना कवि का उद्देश्य नहीं है। जैनदर्शन के मर्मज्ञ महाकवि पुण्यकुशलगणि ने स्याद्वाद-सिद्धान्त के अनुसार अन्य दर्शनों की विशेषताओं का ही प्रकारान्तर से उल्लेख किया है -
त्वमेव नैयायिकवाक्प्रपञ्चैर्विभुः प्रमेयोऽसि लसत्प्रताप । त्वमेव भोक्ता शिवसंपदो हि, वेदान्तसिद्धान्तमताभितळ ।। २६
अर्थात् महाराज भरत ऋषभ-प्रतिमा की वन्दना करते हुए कहते हैं कि हे तेजस्विन् ! नैयायिक सिद्धान्त के अनुसार तुम-सर्वव्यापी और प्रमेय-प्रमिति के विषय हो। हे वेदान्तसिद्धान्तमत से अभितळ ! तुम ही मोक्ष-सम्पदा के भोक्ता हो। सन्दर्भ ग्रन्थ सूची १. त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुगोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्।।
- ऋग्वेद १/२२/१८ २. महाभारत, शान्तिपर्व - १०९/११ . ३. अथर्ववेद - १२/१/१ ४. त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथमस्तप एवेति द्वितीयो ब्रह्मचर्याचार्यकुलवासी तृतीयोऽत्यन्तमात्मानमाचार्यकुलेऽवसादयन्।
-छान्दोग्योपनिषद् २/२३