Book Title: Sramana 2010 10
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 47
________________ ४६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर-१० द्वारा स्वीकृत मुनि-चर्या को प्राप्त करना चाहता हूँ किन्तु मेरे कर्म-बन्धन शिथिल नहीं हो रहे हैं। बन्धन से बँधा हाथी जैसे दुःख पाता है वैसे ही यह संसारी जीव कर्म-बन्धनों से कष्ट ही भोगता है।१९ इस संसार में तो जो सुख के कारण हैं, वे ही दुःख के भी कारण हैं और जो राग के हेतु हैं वे ही संताप के भी हेतु हैं। इसी प्रकार जो मैत्री के कारण हैं, वे ही बैर के कारण हैं। अत: इस संसार में शाश्वत सुख कहीं भी नहीं है। जिनके ये सब नहीं हैं वे मुनि धन्य हैं।२० मुनिजन तो क्रोधरूपी अग्नि को क्षमा-जल से सर्वथा उपशान्त कर देते हैं। वे अपने मानरूपी हाथी को मार्दव रूपी सिंहनाद से परास्त कर देते हैं तथा मायारूपी वृक्ष का ऋजुता के परशु से उच्छेद कर देते हैं।२१ _इस महाकाव्य में मुनिधर्म का महत्त्व बताते हए महाकवि ने कहा है कि वे सर्वदा मन, वचन और काय की प्रवृत्ति में संयत होते हैं। वे तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित मार्ग का साधुवृत्ति से आचरण करते हैं। वे दोनों (बाह्य और आभ्यन्तर) तपस्याओं में लीन रहते हैं। वे आवश्यक क्रियाओं में कभी प्रमाद नहीं करते हैं।२२ मुनिधर्म ज्ञान, भक्ति और क्रिया का समन्वय है। अत: उनके उपदेश सर्वधर्मसमभाव को लिए हुए होते हैं। उनके उपदेशों से मानव की पाशविक और स्वार्थमयी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगता है। धर्म की निष्ठा से व्यक्ति का कल्याण होता है और स्वस्थ समाज का निर्माण होता है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक उदात्त वृत्ति होती है जिसे धर्म कहा जा सकता है। इस प्रकार धर्म की अनुभूति होने पर भी प्रवृत्ति नहीं होती है। मुनि अपने प्रवचन से उसी अनुभूति को जीवन में उतारने की प्रेरणा देते हैं। अत: जैन आम्नाय में मुनिधर्म को श्रेष्ठ धर्म माना जाता है। मुनि मोक्ष-सम्पदा के भोक्ता होते हैं।२३ वे भव्य जीवों के सांसारिक द:खों को दूर करने वाले होते हैं। क्योंकि उन्होंने सभी प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त होकर जन-जन के अज्ञानान्धकार को दूर करने का प्रयास कर परोपकार की धर्मध्वजा को फहराने का निश्चय किया है। वे ही ज्ञान-सूर्य और ज्ञान-चन्द्र की उपमा को धारण करते हैं। अत: भरत ऐसे महात्माओं की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि हे युगादिदेव ! यह संसार-समुद्र कषायरूपी मत्स्यों से भरा पड़ा है। यह कामवासना की कल्लोलों से अत्यन्त दारुण और दुरुत्तर है। अतः हे देव ! तुम ही नौका बनकर प्राणियों को इससे पार पहुंचा सकते हो।२४ ऐसे महामुनियों के नाम-स्मरण से भी महान् पुण्यरूपी धर्म होता है। जब उनके साक्षात् दर्शन हो जाते हैं तो अनेक

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138