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४४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर-१०
दाक्षिण्यं तव तु ममारितीव्रमेतन्नो,
कर्ता तुहिनरुचेर्यथा तमास्यम्।। १२
अर्थात् हे भाई ! तुम छोटे हो और मैं बड़ा हूँ। इसलिए मुझे अपने गुरुत्व को ध्यान में रखकर मन ही मन तुम्हारे अपराधों को क्षमा कर देना चाहिए। किन्तु यह मेरा तीव्र चक्र तुम्हारे पर कृपा नहीं करेगा, जैसे राहु चन्द्रमा पर नहीं करता। यहां कर्तव्यबोध होने से क्षमा-भाव का उदय तो धर्म है किन्तु अहिंसा भाव के अभाव में यह धर्म निष्क्रिय हो जाता है। अतः भगवान् महावीर ने “अहिंसा परमो धर्म:' का उद्घोष किया था। __ज्येष्ठ भ्राता भरत को युद्ध में मारने के लिए उद्धत बाहुबली को देवताओं ने जो उपदेश दिया वह सभी धर्मों का सार प्रतीत होता है -
कलहं तमवेहि हलाहलकं, यमिता यमिनोऽप्ययमा नियमात्।
भवती जगती जगतीशसुतं, नयते नरकं तदलं कलहैः।। १२ अर्थात् तुम उस कलह को हलाहल विष के समान जानो जिसका आश्रय लेकर संयमी मुनि भी संयम से विचलित हो जाते हैं। कलह के कारण यह पूजनीया पृथ्वी राजपूत्र को नरक में ले जाती है, अत: इस पृथ्वी (राज्य) के लिए किये जाने वाले कलह से हमें सदैव विमुख रहना चाहिए। यही नहीं, देवतागण बाहुबली को शान्तरस के सेवन के लिए मुनि-पद की साधना करने का प्रस्ताव रखते हैं। उनकी सच्ची वाणी को सुनकर बाहुबली तत्काल युद्ध और रोष को एक साथ छोड़कर, मित्र और शत्रु को समान मानते हुए हृदय को सदा के लिए करुणामय बनाकर महाव्रतधारी मुनि बन गये -
मुनिरे ष बभूव महाव्रतभृत् , समरं परिहाय समं च रुषा।
सुहृदोऽसुहृदः सदृशान् गणयन्, सदयं हृदयं विरचय्य चिरम् ।। १४
“समणसुत्त'' में मुनि मार्ग को मोक्ष-मार्ग बतलाया गया है। इस मार्ग पर चलकर भव्य जीव इस अनन्त संसार-सागर को पार कर लेता है। इसका आश्रय कोई भी व्यक्ति ले सकता है। वर्ण या जाति का यहां कोई बन्धन नहीं है। जिन अर्थात् जितेन्द्रिय महापुरुषों का वचन ऐसी अमृततुल्य औषधि है जो विषय-वासनाओं का विरेचन कर देती है तथा जरा, मृत्यु एवं रोगों का भी समूलोन्मूलन कर देती है। इस प्रकार सब दुःखों का विनाश कर देने वाली इस जिनवाणी रूपी. औषधि का सेवन आध्यात्मिक स्वास्थ्य को प्रदान करने वाला है। यही कारण है कि युयुत्सु भरत और बाहुबली जिनवाणी