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पुण्यकुशलगणि विरचित भरतबाहुबलिमहाकाव्य में जैनधर्म एवं दर्शन : ४३
और सुन्दरी के प्रबोध से उन्होंने अपने 'अहं' का परित्याग कर अपने पूर्व प्रव्रजित छोटे भाइयों की वन्दना की। क्योंकि जैनधर्म में धर्म-वृद्ध पूज्य होते हैं, आयुवृद्ध नहीं। जैसा कि कालिदास ने भी कुमारसंभव में कहा है
न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते। . इस महाकाव्य के नायक भरत भी अपने समस्त परिवार-जनों के प्रव्रजित हो जाने तथा स्वयं के निराभरण हस्त को देखकर बाह्य उपाधियों एवं स्वभाव में होने वाले अन्तर को समझकर विरक्त हो जिन-दीक्षा ले ली और उनके चित्त में उत्पन्न वीतरागी भावनाओं से ही उन्हें केवलज्ञान हो गया। इस प्रकार इस महायुद्ध का अन्त शान्तरस की निर्मल धारा में अपने समस्त कषायों के प्रक्षालन से होता है। ____यह महाकाव्य संस्कृत के उच्चकोटि के महाकाव्यों की शैली पर रचा गया है। अत: यहां कवि एक साहित्यकार के रूप में "रामादिवत् वर्तितव्यं न रावणादिवत्' की शिक्षा की भांति यही संदेश देता है कि संसार की यथार्थता को समझकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री हो जाय तो अध्यात्म-मार्ग का अनुसरण कर चरम पुरुषार्थ “मोक्ष" को प्राप्त करना चाहिए। क्योंकि आत्मा के परम हित का प्रतिपादन ही जैनदर्शन का प्रयोजन है और उसका परम हित मोक्षप्राप्ति ही है। यह मोक्ष आत्यन्तिक एवं अव्याबाध सुखस्वरूप होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक् चारित्र ही मोक्ष-मार्ग में ले जाता है। ___जैनधर्म प्राणिमात्र का कल्याण करने वाला है। इस धर्म का स्वरूप अहिंसा, संयम और त्याग का समन्वय है। इस धर्म में क्षमा, मृदुता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दस नियम या धर्म होते हैं। इस धर्म का क्षमा-गुण बहुत उपयोगी है। हृदय से की गयी क्षमा परस्पर मैत्री-भाव को बढ़ाती है और वैर-भाव का विनाश करती है। राष्ट्रीय भावात्मक एकता का मूलस्वर क्षमा गुण ही है। सच्चा धर्म वैर-विरोध को नहीं सिखाता। वह तो संयम और विवेक से अपने कर्त्तव्य का बोध कराता है। कर्त्तव्य-पालन एवं अध्यात्म-निष्ठा ही धर्म है जो इस लोक और परलोक दोनों का कल्याण करने वाला है। इसी भाव को अभिव्यक्त करते हुए कवि ने भरत से कहलवाया है -
भ्रातस्त्वं लघुरसि तत्तवापराधाः क्षन्तव्या मनसि मया गुरुर्गुरुत्वात्।