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४२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर-१० प्राप्त करने के लिए अणुव्रतधारी श्रावक ही महाव्रतधारी मुनि हो सकता है। युद्ध के लिए प्रयाण करने पर श्रावक भरत ने बाहुबली की सीमा में विद्यमान जैन-मन्दिर में भगवान् ऋषभ की पूजा-अर्चना की। वहां उन्हें एक मुनि मिले। भरत ने उन्हें पहचान कर दीक्षा लेने का कारण पूछा। प्रत्युत्तर में उन मुनि ने बताया कि भरत के साथ युद्ध में पराजित होकर विरक्त हो गये और जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली। यह जानकर भरत को युद्ध की विभीषिका एवं विनाश की परिकल्पना का पुनराभास हुआ। वे भी अन्तर्मन से मुनिचर्या का पालन करने की इच्छा अभिव्यक्त करते हैं किन्तु अपने आपको कर्मों से बंधा हुआ कहकर वैसा करने में असमर्थता प्रकट करते हैं -
इच्छामि चाँ भवतोपपन्नां, कर्माणि मे नो शिथिलीभवन्ति।
तैरेव बद्धो लभतेऽत्र दुःखं, जीवस्तु पाशैरिव नागराजः।।"
वस्तुत: जैनधर्म की आचार-संहिता में मुनि-धर्म ही श्रेष्ठ धर्म है। इसी धर्म में शान्तरस का सूर्य चित्तवृत्तिरूपी उदयाचल पर उदित होता है। अतएव श्रावकों के हृदय-कमल उनके दर्शन मात्र से विकसित हो जाते हैं -
त्वच्चित्तवृत्तिप्रथमाद्रिचूलां, शमांशुमाली समुदेत्युपेत्य। ततोऽस्मदीयं हृदयारविन्दं, विकासितामेति विलोकनेन।।
जैन-मुनि-धर्म विश्व के सभी धर्मों में अद्वितीय है। इसमें आदित: समस्त परिग्रहों का त्याग कर सत्य, अहिंसा, अस्तेय एवं पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। तप:साधना इस धर्म का प्राण है। अत: जैन-काव्यों में नायक एवं प्रतिनायक अन्त में प्रव्रजित होकर मुनि-दीक्षा ग्रहण करते हैं। यहां पर भी विजयी प्रतिनायक बाहुबली महाव्रतधारी मुनि बन जाते हैं -
मुनिरेष बभूव महाव्रतभृत् , समरं परिहाय समं च रुषा।
सृहृदोऽसुहृदः सदृशान् गणयन्, सदयं हृदयं विरचय्य चिरम् ।।
इस प्रकार मुनि बाहुबली सभी के लिए पूज्य एवं वन्दनीय हो गये। अतएव महाराज भरत ने भी अपनी अश्रु-प्रवाह से पंकिल मुख-कान्ति से संयम में संलग्न एवं संसार विरक्त बाहुबली को प्रणाम किया -
पतदनुकणाविलवक्त्ररुचिर्भरताधिपतिः समुपेत्य ततः ।
प्रणनामतरां मतराभसिकानुरतेर्विरतं निरतं विरतौ ।। किन्तु बाहुबली के मन से “अहं'' पूर्ण रूप से निकला नहीं था। अत: केवल-ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो रही थी। किन्तु कालान्तर में प्रव्रजित ब्राह्मी