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तत्त्वार्थसूत्र के कुछ बिन्दुओं पर विचार : ३१ ज्ञान करवाए और नय—जो वस्तु का आंशिक ज्ञान करवाए।
अनुयोगद्वार में नय के सात भेद बतलाए गए हैं किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उमास्वाति ने नय के पाँच ही भेद बताए हैं। नय के पाँच भेद कहने से उमास्वाति पर यह आक्षेप नहीं लगाया जा सकता कि उन्होंने आगमिक परम्परा का उल्लंघन किया है बल्कि यह तो उनकी सूत्रात्मक शैली का उदाहरण प्रस्तुत करता है। क्योंकि उन्होंने अग्रिम सूत्र में शब्द नय के तीन भेद करके सात की संख्या पूर्ण की है। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि आर्यरक्षित ने ही अनुयोगद्वार में 'तिण्हं सद्दनयाणं' कहकर शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत को शब्दनय की संज्ञा दी है। दिगम्बरों के तत्त्वार्थसूत्र में सीधे सात भेद गिनाए गए हैं। ___इस प्रकार उन्होंने आगम का ही अनुसरण किया है, न कि उस परम्परा से हटकर कुछ अन्य कहा है। इसी का परिणाम है कि उमास्वाति ने आगमों के आधार पर संक्षिप्त सूत्रशैली में अपनी मेधा से तत्त्वार्थसूत्र की रचना कर जैन दर्शन को नवीन रूप में प्रस्तुत किया है। सन्दर्भ
१. आगम युग का जैन दर्शन, दलसुखभाई मालवणिया, पृ. २०६-२०७ २.१ तत्त्वार्थसूत्र जैनागम समन्वय, उपाध्याय आत्मारामजी महाराज, पृ. ३ २.२ तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं. सुखलालजी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान,
वाराणसी, भूमिका, पृ. १५-२७ २.३. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (स्वोपज्ञभाष्य और सिद्धसेनगणि की टीका सहित), भूमिका,
पृ. ३६-४० २.४ तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं. सुखलालजी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, __वाराणसी, पृ. १०५-१०७ ३. सागरमल जैन, तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा, पृ. ६ ४. तत्त्वार्थसूत्र-विवेचक पं. सुखलालजी, भूमिका, पृ. ४५ ५. उत्तराध्ययनसूत्र २८.६ ६. वही ७. वहीं ८. भगवतीसूत्र, १३.४.१८१ ९. सद्दन्धयारउज्जोओ पहा छायातवेइ वा। ___वण्णरसगन्धफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ।। उत्तराध्ययनसूत्र २८.१२ १०. तत्त्वार्थसूत्र, ५.१ ११. मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम्। तत् प्रमाणे।'' वही, १.१०