Book Title: Sramana 2010 10
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 18
________________ आचार्य हेमचन्द्र काव्यशास्त्रीय परम्परा में अभिनवगुप्त के प्रतिकल्प : १७ द्योतन हो रहा हो तो वहाँ रस नहीं, अपितु रसाभास है। एतदर्थ उन्होंने कुमारसम्भव के अष्टम सर्ग का निम्नलिखित पद्य प्रस्तुत किया है अङ्गुलीभिरिव केशसञ्चयं सन्निगृह्य तिमिरं मरीचिभिः । कुड्मलीकृतसरोजलोचनं चुम्बतीव रजनीमुखं शशी ।। २५ इसी प्रकार दोष, गुण और अलंकारों पर हेमचन्द्राचार्य ने अनेक नवीन तर्क और समाधान प्रस्तुत किए हैं। अपेक्षा ___वस्तुतः काव्यशास्त्र का एक-एक विषय हेमचन्द्राचार्य के समय तक पर्याप्त विस्तार पा चुका था, अत: उस पर पूर्ववर्ती विमर्श प्रस्तुत कर परवर्ती विकास भी दिया जाना अपेक्षित है। तभी हमारा साहित्यशास्त्रीय अध्ययन पूर्ण होगा। इस दिशा में कहीं से किसी प्रकार के अभियान की सूचना नहीं है। आचार्य हेमचन्द्र के नाम पर निर्मित पाटन के विश्वविद्यालय में यह अपेक्षा पूरी की जा सकती है। अच्छा होगा यदि इस विश्वविद्यालय में एक-एक शास्त्र की एक-एक स्वतन्त्र फैकल्टी स्थापित हो और उसमें उस शास्त्र से सम्बन्धित प्रत्येक पक्ष का अधिकारी प्राध्यापक अपने विषय को विश्व के समक्ष समग्रता से प्रस्तुति दे सके। अलङ्कार एक महासंज्ञा इतिहास साक्षी है कि अलङ्कारशास्त्र के सभी आचार्य अलंकार संज्ञा को काव्य के सभी धर्मों की एक महासंज्ञा मानते आए हैं। उद्भट ने रस को दण्डी के ही समान एक अलंकार माना और उससे युक्त काव्य को रसवत् नाम दिया, जो व्याकरण और तर्क से संगत और समर्थित था। अतिवादी ध्वनिवाद ने अलंकार को एकमात्र अप्रधान घोषित कर एकमात्र रस को प्रधान ठहराया। तब रसवदलंकार संज्ञा के निर्वाह के लिए रसवत्पद में मतुप् प्रत्यय न मानकर सादृश्यार्थक वतिप्रत्यय मानना चाहा। यह था इतिहास के साथ खिलवाड़। इसका आरम्भ स्वयं आनन्दवर्धन ने ई.सन् ८५० में किया। उन्हीं का वचन है प्रधानेऽन्यत्र वाक्यार्थे यत्राङ्गं तु रसादयः ।। काव्ये तस्मिन्नलङ्कारो रसादिरिति मतिः ।। २६ ध्वनिवाद के समक्ष इस समय प्रश्न उपस्थित है कि रसादि के साथ काव्य का सम्बन्ध है अथवा नहीं। ध्वनिवादी इसका उत्तर दे पाने में असमर्थ

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