Book Title: Sramana 2010 04
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 10
________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ अप्रैल-जून २०१० आदर्श और स्वस्थ जीवन जीने की कला डॉ. सोहनराज तातेड़ [ इस आलेख में आचार्य श्री महाप्रज्ञ और उनके साहित्य को माध्यम बनाकर एक आदर्श और स्वस्थ जीवन जीने की कला को बतलाया गया है। जैन सिद्धान्तों को आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़ते हुए नवीन रूप में रूपायित किया गया है। कुंडलिनी को तेजोलेश्या बतलाया है | शरीर, मन, कर्म और आत्मा का सम्यक् समन्वय करते हुए भावनाओं का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है? लेश्या के रंगों का तथा ध्यान का शरीर पर कैसा असर पड़ता है? इन विवेचनों के माध्यम से आलेख को उपयोगी बनाया गया है।] दर्शन, न्याय की अनेक गहन पुस्तकों का अध्ययन करके मुनि नथमल एक ओर प्रखर दार्शनिक बने तो दूसरी ओर संस्कृत, प्राकृत व्याकरण का अध्ययन करके उन भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान् भी बन गये। बनारस के संस्कृत विश्वविद्यालय में उन्होंने धाराप्रवाह संस्कृत में प्रवचन एवं आशुकवित्व किया। उनके पांडित्यपूर्ण प्रवचन को सुनकर पंडितों ने कहा - "लगता है इन्होंने कर्ण पिशाचिनी विद्या को सिद्ध कर रखा है।' बम्बई में भारतीय विद्या भवन में अनेक उच्च कोटि के संस्कृत विद्वानों के बीच मुनि नथमल का प्रवचन हुआ, उसे सुनकर कुछ प्रोफेसरों ने पूछा- 'आपने किस विश्वविद्यालय में अध्ययन किया है? " मुनि नथमल ने कहा- तुलसी विश्वविद्यालय में। इस नाम को सुनकर प्रोफेसर आश्चर्य चकित रह गये। मुनि नथमल ने आगे चलते आचार्य श्री तुलसी की ओर संकेत करते हुए कहा- वह है हमारा चलता फिरता विश्वविद्यालय | आचार्यश्री महाप्रज्ञ के अनुसार अध्यात्म के मूलभूत आधार दो हैं- आत्मा और कर्म । यदि हम आत्मा और कर्म को हटा लें तो अध्यात्म आधार शून्य हो जायेगा। अध्यात्म की समूची कल्पना और व्यवस्था इस आधार पर है कि आत्मा को कर्म से मुक्त करना है। यदि आत्मा नहीं है तो किसे मुक्त किया जाय ? यदि कर्म नहीं है तो किससे मुक्त किया जाय ? " आत्मा को कर्म से मुक्त करना है" इस सीमा में समूचा अध्यात्म समा जाता है।' आचार्य श्री महाप्रज्ञ स्वयं एक महान् अध्यात्मयोगी थे। उन्होंने साधना के दौरान जो आत्मानुभव किया, उसका स्पष्ट विवेचन उनके साहित्य में उपलब्ध होता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ की दृष्टि से शिक्षा प्रणाली में संतुलन स्थापित करने वाले मुख्य चार तत्त्व हैं- (१) प्राणधारा का संतुलन, (२) जैविक संतुलन, (३) क्षमता की आस्था का जागरण तथा (४) परिष्कार - दृष्टिकोण, भावना एवं व्यवहार

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