Book Title: Sramana 2004 07 Author(s): Shivprasad Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 9
________________ ४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४ वर्तमान में अनुपलब्ध है। किन्तु इसका कुछ अंश, जो आज सुरक्षित है उसका श्रेय जैनाचार्यों को ही है। दिगम्बर जैनाचार्य प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तंड (१०वीं शती) में न केवल इसकी बाईस कारिकायें उपलब्ध हैं, अपितु उन्होंने उन पर व्याख्या भी की है। इसी प्रकार श्वेताम्बर विद्वान् बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि (११वीं शती) ने भी स्याद्वादरत्नाकर में इसकी कुछ कारिकाएं उद्धृत की हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि जहाँ जैन ग्रन्थ द्वादशारनयचक्र की मूलकारिकाओं की पुनर्रचना का आधार धर्मकीर्ति के ग्रन्थों की तिब्बती स्रोत रहे हैं, वही धर्मकीर्ति की संबंधपरीक्षा के कुछ अंशों के संरक्षण का आधार प्रभाचन्द्र का प्रमेयकमलमार्तंड है। जैन परम्परा में बौद्ध प्रमाणमीमांसा की जो समीक्षा उपलब्ध होती है, उसमें सिद्धसेन के न्यायावतार और मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र के बाद उसके टीकाकार सिंहसूरि का क्रम आता है। किन्तु सिंहसूरि की द्वादशारनयचक्र पर लिखी गई टीका में भी बौद्ध परंपरा का जो खण्डन हुआ है, वह वसुबंधु और दिङ्नाग के दार्शनिक मंतव्यों को ही पूर्वपक्ष के रूप में रखकर किया गया है। उन्होंने बौद्धों के प्रमाणलक्षण एवं उनकी प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा की विभिन्न दृष्टिकोणों से समीक्षा की, किन्तु सिंहसूरि ने कहीं भी धर्मकीर्ति को उद्धृत नहीं किया है। उन्होंने मुख्यतया वसुबन्धु और दिङ्नाग के मंतव्यों को ही अपनी समीक्षा का विषय बनाया, इससे यह सिद्ध होता है कि सिंहसूरि वसुबंधु एवं दिङ्नाग के परवर्ती किन्तु धर्मकीर्ति के पूर्ववर्ती रहे हैं। इनका काल छठी शताब्दी का उत्तरार्ध या सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है। जैन प्रमाणशास्त्र के इतिहास की दृष्टि से सिद्धसेन और मल्लवादी के पश्चात् इन्हीं का क्रम आता है, क्योंकि ये मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र के टीकाकार भी हैं। पाँचवीं-छठी शताब्दी पश्चात् से जैन आचार्यों ने बौद्ध तत्त्वमीमांसा और प्रमाणमीमांसा की समीक्षा की, इस क्रम में यहाँ हम प्रमुख रूप से उन्हीं आचार्यों का उल्लेख करेंगे जिन्होंने न केवल जैन प्रमाणशास्त्र के विकास में अपना अवदान दिया है अपितु प्रमाणशास्त्रीय बौद्ध मंतव्यों की समीक्षा भी की है अथवा उनके प्रमाणशास्त्रीय मंतव्यों की समीक्षा बौद्ध आचार्यों ने की। सिद्धसेन, मल्लवादी और सिंहसूरि के पश्चात् आचार्य सुमति (लगभग ७वीं शती) हुए हैं, ये जैनधर्म को यापनीय परम्परा के आचार्य रहे हैं। दुर्भाग्य से आज उनकी कोई भी कृति उपलब्ध नहीं होती है, किंतु बौद्ध दार्शनिक शांतरक्षित (आठवीं शती) ने अपने ग्रंथ तत्त्वसंग्रह में सुमति के नामोल्लेखपूर्वक उनके प्रमाणशास्त्रीय मंतव्यों की समीक्षा की है। ज्ञातव्य है कि आचार्य सुमति ने श्वेताम्बर आचार्य सिद्धसेन के सन्मतितर्क पर एक विवृत्ति भी रची थी जो आज अनुपलब्ध है, इससे लगता है कि आचार्य सुमति उस उदार यापनीय परम्परा के आचार्य रहे हैं, जो आज लुप्त हो चुकी है। इसीकाल के अर्थात् सातवीं-आठवीं शती के अन्य जैन नैयायिक पात्रकेसरी हैं। इनकी प्रसिद्ध रचना त्रिलक्षणकदर्थन है। इसमें बौद्धों के त्रैरूप्य हेतु का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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