Book Title: Siddhant Swadhyaya Mala - Uttaradhyayan Dashvakalik Nandi Uvavai Sukhvipak Sutrakritang
Author(s): Hiralal Hansraj
Publisher: Hiralal Hansraj
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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र-दसमाध्ययनम्
गच्छसि मग्गं विसोहिया, समयं गोयम मा पमायए ॥ ३२ ॥ अबले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमे वगाहिया। पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम मा पमायए ।। ३३ ॥ तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम मा पमायए ।। ३४ ॥ अकलेवरसेणिं उस्सिया, सिद्धिं गोयम लोयं गच्छसि । खेमं च सिवं अणुसरं, समयं गोयम मा पमायए ॥ ३५ ॥ बुद्धे परिनिव्वुडें चरे, गामगए नगरे व संजए । सन्तीमग्गं च वृहए, समयं गोयम मा पमायए ॥ ३६ ॥ बुद्धस्स निसम्म भासियं, सुकहियमट्टपओवसोहियं । रागं दोसं च छिन्दिया, सिद्धिगई गए गोयमे ॥ ३७॥
त्ति बेमि ॥ इअ दुमपत्तयं समत्तं ॥१०॥
॥ अह बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं ॥ संजोगा विप्पमुक्कस्म, अणगारस्स भिक्खुणो। आयारं पाउकरिस्सामि, आणुपुग्विं सुणेह मे ॥१॥ जे यावि होइ निविजे, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे अभिक्खणं उल्लयई, अविणीए अबहुस्सुए ॥२॥ अह पंचहिं ठाणे हिं, जेहिं सिक्खा न लब्भई । थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण य ॥३॥ अह अट्टहिं ठाणेहिं, सिक्खासीलि त्ति वुच्चई । अहस्सिरे सया दन्ते, न य मम्ममुदाहरे ॥ ४ ॥ नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीलि त्ति वुचई ॥५॥ अह चोइसहि ठाणेहिं, वट्टमाणे उ संजए । अविणीए वुचई सो उ, निव्वाणं च न गच्छइ ॥६॥ अमिक्खणं कोही हवइ, पबन्धं च पकुव्बई । मेतिन्जमाणो वमइ, सुयं लघृणमज्जई ॥ ७ ॥ अवि पावपरिक्खेवी, अवि मिनेसु कुप्पई । सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासइ पावयं ॥ ८ ॥ पहण्णवाई दुहिले, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे । असंविभागी अवियत्ते, अविणीए त्ति वुच्चई ॥ ९॥ अह पन्नरसहिं ठाणेहिं, सुविणीए त्ति वुच्चई । नीयावती अचवले, अमाई अकुऊहले ॥१०॥ अप्पं च अहिक्खिवई, पबन्धं च न कुव्वई । मेतिजमाणो भयई, सुयं लथु न मजई ॥ ११ ॥ न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तसु कुप्पई । अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई ॥१२॥ कलहडमरबज्जिए बुद्धे अभिजाइए । हिरिमं पडिसंलीणे, सुविणीए ति वुच्चई ॥ १३ ॥ वसे गुरुकुले निचं, जोगवं उवहाणवं । पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लछुमरिहई ॥ १४ ॥ जहा संखम्मि पयं, निहियं दुही वि विरायइ । एवं बहुस्सुए भिक्खू, धम्मो कित्ती तहा सुयं ॥ १५ ॥ जहा से कम्बोयाणं, आइण्णे कन्थए सिया । आसे जवेण' पवरे, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ १६ ॥ जहाइण्णसमारूढे, सूरे दृढपरक्कमे । उभओ नन्दिघोसेणं, एवं हवा बहुस्सुए ॥१७॥ जहा करेणुपरिकिण्णे, कुंजरे सहिहायणे । बलवन्ते अप्पडिहए, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ १८ ॥
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