Book Title: Siddhant Swadhyaya Mala - Uttaradhyayan Dashvakalik Nandi Uvavai Sukhvipak Sutrakritang
Author(s): Hiralal Hansraj
Publisher: Hiralal Hansraj
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(४६)
श्रीजैनसिद्धान्त - स्वाध्यायमाला
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४८ ॥
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राइयं च अईयरं चिन्तिज्ज अणुपुवसो । नाणंमि दंसणंमि य, चरितमि तवंमि य पारियकाउस्सग्गो, वन्दित्ताण तओ गुरुं । राइयं तु अईयारं, आलोएज्ज जहकम्मं ॥ पडिकमित्त निस्सल्लो, वन्दित्ताण तओ गुरुं । काउस्सग्गं तओ कुजा, सङ्घदुक्खणं ॥ किं तवं षडिवज्जामि, एवं तत्थ विचिन्तए । काउस्सग्गं तु पारिता, वन्दई य तओ गुरुं ॥ पारिय काउस्सग्गो, वन्दित्ताण तओ गुरुं । तवं तु पडिवजेज्जा, कुज्जा सिद्धाण संथवं ॥ एसा सामायारी, समासेण वियाहिया । जं चरित्ता बहू जीवा, तिण्णा संसारसागरं ।। ५३ ॥ ति बेमि ॥ इअ सामायारी समत्ता ॥ २६ ॥
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॥ अह खलुंकिजं सत्तवीसइमं अज्झयणं ॥
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६ ॥
थेरे गहरे गग्गे, मुणी आसि विसारए । आइण्णे गणिभावम्मि, समाहिं पडिसंघ ॥ १ ॥ वहणे व माणस. कन्तरं अइवत्तई । जोगे वहमाणस्स, संसारो अइवतई ॥ खलुंके जो उ जोएइ, विहम्माणो किलिस्साई | असमाहिं ज वेएइ, तोत्तओ से य भज्जई ॥ एगं डसइ पुच्छम्मि, एगं विन्धइ भिक्खणं । एगो भंजइ समिल, एगो उपहदडिओ ॥ एगो पडइ पासेणं, निवेस निवजई । उक्कुहइ उप्फिडइ, सढे बालगवी वए ॥ माई मुद्धेण पडइ, कुद्धे गच्छे पडिप्पहं । मयलक्खेण चिट्ठाई, वेगेण य पहामई ॥ छिन्नाले छिन्दई सेलिं, दुद्दन्तो भंजए जुगं । सेवि य सुस्सुयाइत्ता, उज्जहित्ता पलायए ॥ ७ ॥ खलुंका जारिसा जोज्जा, दुस्सीसा वि हु तारिसा । जोइया धम्मजाणम्मि, भजन्ती धिइदुब्बला ॥ ८ ॥ इड्डीगारविए एगे, एगेत्थ रसगारवे । सायागारविए एगे, एगे सुचिरकोहणे ॥ ९ ॥ भिक्खालसिए एगे, एगे ओमाणभीरुए । थद्धे एगे आणुसासम्मी, हेऊहिं कारणेहि य ॥ १० ॥ सो वि अन्तरभासिल्लो, दोसमेव पकुवई । आयरियणं तु वयणं, पडिकूलेइऽभिक्खणं ॥ न सा ममं वियाणाइ; न य सा मज्झ दाहिई । निग्गया होहिई मन्ने, सहू अन्नोत्थ वच्चउ || पेसिया पलिउंचन्ति, ते परियन्ति, समन्तओ । रायवेट्ठि च मन्नन्ता, करेन्ति भिउडिं मुहे वाइया संगहिया चेव, भत्तपाणेण पोसिया । जायपक्खा जहा हंसा, पक्कमन्ति दिसो दिसिं ॥ अह सारही विचिन्तेइ, खलुंकेहिं समागओ । किं मज्झ दुट्ठसीसेहिं, अप्पा मे अवसीयई ।। जारिसा मम सीसाओ, तारिसा गलिगदहा । गलिगद्दहे जहित्ताणं, दढं पगिण्हई तवं मिउमद्दवसंपन्नो, गम्भीरो सुसमाहिओ । विहरइ महिं महप्पा, सीलभूषण अप्पणं ॥ त्ति बेमि ॥ खलुकिज्जं समत्तं ॥ २७ ॥
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१५ ।।
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