Book Title: Siddhant Swadhyaya Mala - Uttaradhyayan Dashvakalik Nandi Uvavai Sukhvipak Sutrakritang
Author(s): Hiralal Hansraj
Publisher: Hiralal Hansraj
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(५२)
श्रीजैन सिद्धान्त-स्वाध्यायमाला.
जहा सूई सत्ता न विणस्सइ तहा जीवे ससुत्ते संसारे न विणस्सइ, नाणविणयतवचरितजोगे संपाउणइ, ससमयपर समय विसारए य असंघायणिज्जे भवइ ।। ५९ ।। दंसणसंपन्नयाए णं भंते जीवे किं जणय | दं० भवमिच्छत्तछेयणं करेइ न विज्झायइ । परं अविज्झाएमाणें अणुत्तरेणं नागदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं भावेमाणे विहरइ || ६० || चरितसंपन्नयाए णं भंते जीवे किं जणय | च० सेलेसीभावं जणयः । सेलेसिं पडिवने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेड़ । तओ पच्छा सिज्झइ बुझइ मुच्च परिनिवाय सवदुक्खाणमन्तं करेइ ॥ ६१ ॥ सोइन्दिय निग्गणं भन्ते जीवे किं जणयइ । सो० मणुन्नमणुन्नेसु सदेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बन्धइ, पुवबद्धं च निजरेइ ।। ६२ । चक्खिन्दियनिग्गणं भन्ते जीवे किं जणयइ । च० मणुन्नामणुन्नेसु रूवेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पचइयं कम्मं न बन्धड़, पुवबद्धं च निज्जरेइ ॥ ३३ ॥ घाणिन्दियनिग्गणं भन्ते जीवे किं जणयइ । घा० मणुन्नामणुन्नेसु गन्धेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तमच्चइयं कम्मं न बन्धर, पुवबद्धं च निज्जरेइ || ६४ || जिब्भिन्दियनिग्गणं भन्ते जीवे किं जणयइ | जि० मणुन्नामन्न रसेसु रागदोषनिग्गहं जणुयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बन्धइ, पुवबद्धं च निजरेइ || ६५ || फासिन्दियनिग्गणं भन्ते जीवे किं जणयइ । फा० यणुन्नामणुन्ने फासेसु रागदोषनिरहं जणय, तप्पच्चइयं कम्मं न वन्धइ, पुवबद्धं च निजरेइ || ६६ || कोह विजरणं भन्ते जीवे किं जणय | को खन्ति जणय. कोहवेयणिज्जं कम्मं न बन्धर, पुवबद्धं च निजरेइ | ६७ || माणविजएणं भन्ते जीवे किं जणय | मा० मद्दवं जणय, मायावेयणिज्जं कम्मं न बन्धर, पुवबद्धं च निज्जरेइ || ६८ || मायाविजएणं भन्ते जीवे किं जणयइ । मा० अज्जवं जणयइ, मायावेयणिज्जं कम्मं न बन्धइ, पुवबद्धं च निजरेइ ।। ३९ ।। लोभविजरणं भन्ते जीवे किं जणयइ । लो० संतोसं जणय, लोभवेयणिजं कम्मं न बन्धर, पुवलद्धं च निजरेइ || ७० || पिज्जदोस मिच्छादंसणविजएणं भन्ते जीवे किं जणय | पि० नाणदंसणचरिताराहण्याए अब्भुट्ठे । अट्ठविहस्स कम्मस्स कम्ममोयया तप्पढमयाए जहाणुपुवीए अट्ठट्ठवीसइविहं मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ, पञ्चविहं नाणावर णिज्जं, नवविहं दंसणावरणिज्जं पंचविहं अन्तराइयं, एए तिनि वि कम्मंसे खवेइ । तओ पच्छा अणुत्तरं कसिणं पडिपुत्णं निरावरणं दितिमरं विशुद्धं लोगालोग पभावं केवलवरना णदंसणं समुप्पाडे । जाव सजोगी भवः, ताव ईरियावहियं कम्मं निबन्धइ सुहफरिसं दुसमयठियं । तं पढमसमए बर्द्ध, विइयसमए वेइयं, तइयसमए निजिणं, तं बद्धं पुङ्कं उदीरियं वेइयं निजिणं सेयाले य अकम्भयाच भवइ ॥ ७१ ॥ अह आउयं पालइत्ता अन्तोमुहुत्तद्धाय से साए जोगनिरोहं करेमाणे मुहुमकिरियं अप्पडिवाई सुक्कज्झाणं झायमाणे तप्पढमयाए मणजोगं निरुंभइ वयजोगं निरुंभइ, कायजोगं निरंभ, आणपाणु निरोहं करेइ, ईसि पंचरहस्सक्खरुच्चारणट्ठाए य णं अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियसुकझाणं झियायमाणे वेयणिज्जं आउयं नामं गोत्तं च एए चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवे ॥ ७२ ॥
ओ ओरालियतेयकम्माई सवाहिं विप्पजणाहिं विप्पजहित्ता उज्जुसेढिपत्ते अफुसमाणगई उडूं एगसमएणं अविग्गणं तत्थ गन्ता सागारोवउत्ते सिज्झइ बुज्झर जाव अंत करेइ ॥ ७३ ॥ एस खलु सम्मत्तपरकम्मस्स अज्झयणस्स अट्ठे समणेण भगवया वहावीरेणं आघविए पनविए परूविए दंसिए उवदेसिए | ७४ ॥ त्ति बेमि || इअ सम्मत्तपरक्कमे समत्ते ॥ २९ ॥
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