Book Title: Siddhant Swadhyaya Mala - Uttaradhyayan Dashvakalik Nandi Uvavai Sukhvipak Sutrakritang
Author(s): Hiralal Hansraj
Publisher: Hiralal Hansraj
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(३८)
श्रीजैनसिद्धान्त-स्वाध्यायमाला
सोऊण तस्स वयणं, बहुपाणिविणासणं । चिन्तेइ से महापनो, साणुकोसे जिए हिऊ ॥ १८ ॥ जह मज्झ कारणा एए, हम्मन्ति सुबहू जिया । न मे एयं तु निस्सेसं, परलोगे भविस्सई ॥ १९ ॥ सो कुण्डलाण जुयलं, सुत्तगं च महायसो। आभरणाणि य सबाणि, सारहिस्स पणामए ॥ २०॥ मणपरिणामे य कए, देवा य जहोइयं समोइण्णा । सवड्डीइ सपरिसा, निक्खमणं तस्स काउंजे ॥ २१॥ देवमणुस्सपरिवुडो.सीयारयणं तओसमारूढो, निक्खिमय वारगाओ, रेवयम्मि ठ्ठिओ भगवं ॥ २२ ॥ उजाणं संपत्तो, ओइण्णो उत्तमाउ सीयाओ। साहस्सी परिवुडो, मह निक्खमई उशित्ताहिं ॥ २३ ॥ अह से सुगन्धगन्धीए, तुरियं मउकुंचिए । सयमेव भुंचई केसे, पंचमुट्ठीहिं समाहिओ ॥ २४ ॥ वासुदेवो य णं भणइ, लुत्तकेसं जिइन्दियं । इच्छिरियमणोरहं तुरियं, पावसू तं दमीसरा ॥ २५॥ नाणेणं दंसणेणं च, चरित्तेण तहेव य। खत्तीए मुत्तीए, वड्डमाणो भवाहि य ॥ २६ ॥ एवं ते रामकेसवा, दसारा य बहू जणा। अरिडणेमिं वन्दित्ता, अभिगया दारगापुरिं ॥ २७॥ सोऊण रायकन्ना, पवजं सा जिणस्स उ । नीहासा य निराणन्दा, सोगेण उ समुत्थिया ॥ २८ ॥ राईमई विनिन्तेइ, धिरत्थु मम जीवियं । जा हं तेण परिचत्ता, सेयं पव्वइउं मम ॥ २९ ॥ अह सा भमरसन्निभे, कुच्चफणगसाहिए । सयमेव लुचई केसें, धिइमन्ता ववस्सिया ॥३०॥ वासुदेवो य णं भणइ, लुत्तकेसं जिइन्दियं । संसारसागरं घोरं, तर कन्ने लहुं लहुं ॥ ३१ ।। सा पव्वइया सन्ती, पवावेसी तहिं वहुँ सयणं परियणं चेव, सीलवन्ता बहुस्सुया ॥ ३२॥ गिरि रेवतयं जन्ती, वासेणुल्ला उ अन्तरा । वासन्ते अन्धयारम्मि, अन्तो लयणस्स सा ठिया ॥ ३३ ।। चीवराई विसारन्ती, जहा जाय त्ति पासिया। रहनेमी भग्गचित्तो, पच्छा दिट्टो य तीइ वि ॥ ३४।। मीया य सा तहिं दटु, एगन्ते संजयं तयं । वाहाहिं काउ संगोप्फं, वेवमाणी निसीयई ॥ ३९ ॥ अह सो वि रायपुत्तो, समुद्दविजयंगओ। भीयं पवेवियं दटुं, इमं वकं उदाहरे ॥ ३६ ॥ रहनेमी अहं भद्दे, सुरूवे चारुभासिणी । ममं भयाहि सुयणु, न ते पीला भविस्सई ॥ ३७॥ एहि ता भुजिमो भोए, माणुस्सं खुसुदुल्लहं। भुत्तभोगी पुणो पच्छा, जिणमग्गं चरिस्समो ॥ ३८ ॥ दटुण रहनेमिं तं, भग्गुजोयपराजियं । राईमई असम्भन्ता, अप्पाणं संवरे तहिं ।। ३९ ॥ अह सा रायवरकन्ना, सुट्टिया नियमबए। जाई कुलं च सीलं च, रक्खमाणी तयं वए ॥ ४०॥ जइ सि रूवेण वेसमणो, ललिएण नलकुवरो। तहा वि ते न इच्छामि, जइ सि सक्खं पुरंदरो ।। ४१॥ धिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा । वन्तं इच्छसि आवाउं, सेयं ते मरणं भवे ॥ ४२ ॥ अहं च भोगरायस्स, तं च सि अन्धगवण्हिणो। मा कुले गन्धणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥ ४३ ।। जइ तं काहिसि भावं, जा जा दच्छसि नारिओ। वायाइद्धो व हढो, अहिअप्पा भविस्ससि ॥ ४४ ॥ गोवालो भण्डवालो वा, जहा तद्दवणिस्सरो। एवं अणिस्सरो तं पि, सामणस्स भविस्ससि ॥ ४५ ॥ तीसे सो वयणं सोचा, संययाए सुभासियं । अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥ ४६ ॥ मणगुत्तो वायगुत्तो, कायगुत्तो जिइन्दिए । सामण्णं निच्चलं फासे, जावजीवं दढवओ ॥ ४७ ॥ उग्गं तवं चरित्ताणं, जाया दोणि वि केवली। सवं कम्मं खवित्ताणं, सिद्धि पत्ता अणुत्तरं ।। ४८ ।। एवं करेन्ति संबुद्धा, पण्डिया पवियक्खणा। विणियदृन्ति भोगेसु, जहा सो पुरिसोत्तमो ॥ ४९ ॥
त्ति बेमि ॥ रहनेमिजं समत्तं ।।
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