Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 12
________________ विषय-परिचय ध्रुव बन्ध - अभव्य जीवोंके जो ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध होता है वह अनादिअनन्त होनेसे ध्रुव बन्ध कहलाता है । ध्रुवबन्धी प्रकृतियां ४७ हैं - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तराय । अध्रुव बन्ध- भव्य जीवोंके जो कर्मबन्ध होता है वह विनश्वर होनेसे अध्रुव बन्ध है। अध्रुवबन्धी प्रकृतियां-ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंसे शेष ७३ प्रकृतियां अध्रुवबन्धी हैं । इनमें ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकार तथा शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध ही होता है । उक्त व्यवस्थायें यथासम्भव आगेकी तालिकाओंमें स्पष्ट की गई हैं बन्धोदय-तालिका संख्या . प्रकृति बन्ध किस | उदय किस स्वोदयबन्धी सान्तरबन्धी| गुणस्थानसे | गुणस्थामसे आदि । आदि किस गुणस्थान किस गुणस्थान तक तक | स्वो- बन्धी निरन्तरबन्धी १-१० स्व-परो. १-८ १५ १-१३ सा. निर. सान्तरबन्धी १-६ ज्ञानावरण ५ | चक्षुदर्शनावरणादि । १०-११/ निद्रा, प्रचला | निद्रानिद्रादि ३ सातावेदनीय असातावेदनीय | मिथ्यात्व १८-२१ अनन्तानुबन्धी ४ अप्रत्याख्यानावरण ४ २६.२९/ प्रत्याख्यानावरण ४ ३०.३२ संज्वलनक्रोधादि ३ २१ | संग्वलनलोभ Ti स्वो. नि. स्व-परो. १-२ १-९ १-९ ५२, ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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